About Didi Maa

Monday, July 29, 2013

मम्मी नहीं माँ कहिए और उसके अर्थ को समझें -‘दीदी माँ’ साध्वी ऋतम्भरा

दीदी माँ
अपने देश को समथ्र और समृद्ध बनाने के लिए सुप्त मातृशक्ति का जागरण जरूरी है। हमें शक्ति अर्जित करने है। हमें अपनी शक्ति को पहचानना है और विषम परिस्थितियों से घिरे भारत को एक ऐसी दिशा प्रदान करनी है कि हमारा यह देश, हमारी यह धरा, हमारा यह समाल अपने उस खोए गौरव को पुनः प्राप्त करें जिस गौरव, जिस स्वाभिमान और जिस शक्ति से सम्पन्न हमारे पूर्वज थे, हमारे पुरखे थे।
 
हमारे देश में मातृशक्ति को जागृत करने के प्रयास पश्चिम की तर्ज पर हो रहे हैं। मेरी अपनी मान्यता है कि भारत की नारी-शक्ति, भारत की स्त्री, भारत की महिला, उन पवित्र परंपराओं, मान्यताओं और भारत के गौरव से भरे हुए इतिहास से परिचित होगी तो यह सोचकर कि ‘मुझे इतनी पवित्र पावन सांस्कृतिक परंपरा में जन्म लेने का अवसर मिला है, वह अपने दायित्व, गौरव और स्वाभिमान का अनुभव करेगी। भारत में स्त्री को कभी भोग्या की दृष्टि से नहीं देखा गया। भारत मातृपूजक देश है। याहँ माँ और जननी परमपूज्या होती हैं किंतु आजादी के पूर्व जो हमारी पूज्या थी उसे भोग्या मानने-बनाने का प्रयास हुआ। भारत की मातृ-शक्ति को पीछे धकेलने की कोशिश हुई। हम धीरे-धीरे अपनी गरिमा, अपने गौरव और अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान- शून्य होते चले गए। 

भारत की स्त्री को आज के बाजार में उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने के लिए विज्ञापन के रूप में साजाया-दिखाया जाता है। हम पाश्चात्य संस्कृति से इतने प्रभावति हैं, इसके आकर्षण में इतना आबद्ध हैं कि अपने ‘स्व’ को भूल गए हैं। अपने स्वरूप को भूल गए हैं। परिणामस्वरूप आज अजीबोगरीब वातावरण में हम अपने को खड़ा पा रहे हैं। हम यह भूल गए हैं कि माँ निर्मात्री होती है। जननी संतान को जन्म देती है, माँ उसे द्विज बनाती है। माँ पुकारने से ‘माँ’ शब्द का उच्चारण करने से हृदय में वात्सल्य, स्नेह और समर्पण का अद्भुत भाव उमड़ उठता है। प्रत्येक स्त्री को माँ होने का सौभाग्य मिला है? किन्तु हमारी अधिकाँश माताएँ, बहनें स्वयं को ‘मम्मी’ कहलाने में गौरव का अनुभव करने लगी हैं। अब कितनी बची हैं ‘माँ’ अपने देश में? अब माताएँ माँ नहीं, केवल मम्मी हैं। काश! माँ होतीं तो समझतीं कि यह सम्बोधन कितना सागरर्भित, कितना मार्मिक और कितना संस्कारक्षम है। 

हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे समस्त संवेदनशील सम्बन्धों की जीवन्तता नष्ट हो गई है। अब हमें यह बताने की आवश्यकता आन पड़ी है कि माँ कहने से हृदय में एक अजीब सी तृप्ति का अनुभव होता है जो ‘मम्मी’ कहने से नहीं हो सकता। पिता जहाँ ‘डैड’ हो गए हों, माँ जहाँ ‘मम्मी’ हो गईं हों तो क्या जाने माँ सन्तान का सुख और क्या जाने संतान माता-पिता के वात्सल्य का आनन्द? कुछ लोग कहते हैं कि शब्दों में क्या रखा है? वे यह नहीं जानते कि शब्दों में बड़े गहरे अर्थ छिपे रहते हैं। हमने जो कुछ खोया है हम उसे पुनः प्राप्त कर सकते हैं। मात्र जागने की जरूरत है। केवल अनुभव करने की जरूरत है। जब घर में पुत्र का जन्म होता है तो लोग कहते हैं ‘‘आपको बधाई हो, आपके कुल का ‘दीपक’ प्रज्जवलित हो गया।’’ लेकिन जो आपके कुल का दीपक है, घर का चिराग, उसके जन्मदिन पर केक काटते, मोमबŸिायाँ बुझाते, ताली पीटते आपकोे शर्म का अनुभव नहीं होता कि, ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ का मंत्र दिया था। आज हमारा ही कुल-दीपक, दीपक बुझा रहा है और हम सीना तानकर तालियाँ पीट रहे हैं? क्या इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ और नहीं हो सकता है? अपनी संतानों को प्रकाश से अंधकार की ओर नहीं, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा दीजिए ताकि उन्हें पता चले कि प्रकाश की कीमत क्या होती है? वे यह अनुभव करें कि प्रकाश की कीमत क्या होती है?वे यह अनुभव करें कि तेजस्विता, ओजस्विता किसे कहते हैं? यह अनुभव वे कैसे करेंगी? माँ प्रातः काल उठेगी, अपनी सन्तानों को सूर्योदय का दर्शन कराएगी। तब उनके हृदय में तेजस्विता का संचार होगा। अपनी संताने तेजस्वी बनें, ओजस्वी बनें, उन्हें पता चले कि प्रकाश किसे कहते हैं, उन्हें अनुभव हो कि दूसरों को आलोक देना, प्रकाश देना कैसा होता है। यह अनुभव वे कैसे करेंगे, जब तक माँ स्वयं उस अनुभूति से न गुजरेगी?

माँ की महिमा अपार-अथाव है। पशु-जगत में एक बार में ही बारह-बारह बच्चों को जन्म देने वाले पशु पाए जाते हैं। वे बारह-बारह संतानों की जननी बन जाते हैं, तब भी उनकी महिमा नहीं गाई जाती। क्योंकि महिमा संतान को जन्म देने में नहीं महिमा संतान को जन्म देकर उसे द्विज बना देने में है। महिमा तो उन ‘विद्यावतियों’ की होती है जिन्होंने ‘भगतसिंहों’ को फाँसी के फंदे पर झूलते देखा तो उनका कलेजा श्लोकवत् वाणी में बोला कि ‘मेरी कोख आज सार्थक हो गई कि मेरे पुत्र ने भारत की गुलामी की जंजीरें काटने के लिए फाँसी का फंदा चूम लिया, आज मेरा पुत्र को जन्म देना सार्थक हो गया।’

बनना तो विद्यावती जैसी माँ बनना। माँ बनने का सौभाग्य मिला है तो फिर यशोदा जैसी माँ बनना। कोई पूछता है कि कन्हैया की माँ का नाम क्या है तो देवकी का नहीं यशोदा मैया का नाम लिया जाता है। देवकी तो कान्हा की केवल जननी थीं। उनकी माँ यशोदा थीं। जननी होना अलग बात है और माँ होना सर्वथा अलग बात। माँ बनना हो तो जीजाबाई जैसी माँ बनो। ‘स्त्री’ को स्त्री होने का अर्थ समझना चाहिए। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि हम कितनी विचित्र दासता और गुलामी की मानसिकता के दौर से गुज़र रहे हैं कि अपनी परंपरा और क्षमता पर हमें गौरव का अनुभव ही नहीं होता। अपनी शक्ति पर हम विश्वास नहीं कर पाते। परमात्मा ने माँ को सर्वोच्च स्थान दिया है। लोग जब कहते हैं कि स्त्रियों के लिए कुछ ऐसा करो कि वह पुरुषों से भी आगे निकल जाएं तो बहुत पीड़ा होती है। स्त्री को पुरुष के समकक्ष खड़ा करना मूर्खता है। जिसका स्थान देवताओं से भी ऊँचा है, उसको पुरुषों के समकक्ष और उसे आगे निकल जाने की होड़ में खड़ा करोगे? इसका अर्थ यह है कि हमने भारतीय संस्कृति को समझा ही नहीं। भारत की महिला की महिमा बड़ी विचित्र है और इसे समझने के लिए हृदय चाहिए।