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Tuesday, August 13, 2013

दर्द का सैलाब जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा...

‘टूट चुकी सड़कों और कभी भी भरभराकर गिर पड़ने वाले पहाड़ी मलबे के बीच से होकर हम उत्तराखण्ड के उन गांवों की ओर बढ़ रहे थे जहाँ कई जिंदगियाँ असमय मृत्यु की भेंट चढ़ चुकी थीं। हमने देखा कि इन गांवों में हलचल के नाम पर केवल करुण स्वरों का विलाप था जो दिल को भीतर गहरे तक चीर कर रख देता था। कुछ गांवों के तो सारे पुरुष चाहे वो पति हो या बेटे, सभी उस रात हुई अनायास जल प्रलय में समा गए थे। तूफानी वेग से बहकर गुजर रही किसी पहाड़ी नदी के पास खड़े होकर विलाप करती हुई माँ जब उस नदी से अपने बेटे का शव मांगती है तो कलेजा जैसे बैठ सा जाता है। एक माह से अधिक बीत चुका...अब कोई संभावना नहीं कि अपना खोया हुआ वापिस आएगा लेकिन सूनी आंखें अब भी पहाड़ की ओर टकटकी लगाकर देखती हैं कि शायद पति या बेटा कहीं से घर लौट आए। आशा और निराशा के बीच झूलती जिंदगी मृत शरीर सी बिस्तर पर पड़ी हुई त्रासदी को भोग रही है...मैंने देखा है दर्द के उस सैलाब को अपनी आंखों से जो अब भी मौजूद है उत्तराखंड की पहाडि़यों में’

वो पहाड़ जो हमेशा से उनकी जिंदगी रहे हैं, आज उनके उन शिखरों को देखकर उन्हें सिहरन होती है जहां से पत्थर दिल मौत बरसी थी। टूटे रास्तों पर घायल पड़ी जिंदगियां राहत का रास्ता देख रही हैं। सारे देश के दिल को उत्तराखंड आपदा ने दहला दिया है। देशवासियों ने दिल खोलकर राहत कार्यों में योगदान दिया है लेकिन इस वक्त की जरूरत है घायल दिलों पर अपने स्नेह के लेपन की। अपनों को खो देने का दर्द जीवन भर सालता रहता है। आहत दिलों को अपनेपन के दुलार से राहत की जरूरत है। उत्तराखंड के दूरदराज पहाड़ों में कई गांव ऐसे हैं जहां लगभग हर घर से कोई न कोई पुरुष इस आपदा में काल कवलित हुआ है। इन तमाम गांवों में महिलाओं की आंखों में गहरा सूनापन है..प्रतीक्षा है उन अपनों की जो शायद कभी लौटकर नहीं आएंगे।
 
लगभग टूट चुके खतरनाक रास्तों और गिरते हुए पहाड़ी मलबे के बीच इन आहत दिलों को सहलाने के लिए निकल पड़ी दीदी मां साध्वी ऋतम्भरा जी गहरी संवेदनाओं से भरी हुई हंै। अपने तमाम नियमित कार्यक्रमों को निरस्त कर उन्होंने उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में जाकर आपदा पीडि़तों को गले लगाया। उनकी उन सभी जरूरतों को पूरा करने का वादा किया जिनको पूरा करने का प्रयत्न करते-करते चारधाम यात्रा मार्ग में उनके पति या पुत्र मारे गए।
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मैं ऐसे ही एक गांव ल्वारा तहसील ऊखीमठ के एक घर में गई जहां.एक साधनहीन छोटे से किसान श्रीपुरुषोत्तम शुक्ला के घर में मातम पसरा पड़ा है। इस घर के दो बच्चे हेमन्त शुक्ला और अजय शुक्ला आज तक लापता हैं। मैं जब उनके आंगन में गई तो वहां की नीरवता चीत्कारों से गूंज उठी। उन बच्चों के मूक-बधिर पिता के मुंह से शब्द तो नहीं निकले लेकिन आंखों से झरते आंसू उनके हदय की पीड़ा को बयां कर रहे थे। मां सरस्वती देवी की आंखें अपने दोनों बच्चों की प्रतीक्षा मंे पथरा गई थीं। बच्चों की मौसी मुझसे लिपटकर चीत्कार करती हुई बोली -‘मां, सारे गांव के बच्चे एक-एक कर लौट आए लेकिन बस हमारे ही बच्चे नहीं लौटे। सब दिलासा देते हैं कि वो पहाडों में ही कहीं होंगे। कहां गए हमारे बच्चे?’ रोते-रोते उनका गला सूख गया। मैंने जब बच्चों की मौसी को पानी पिलाना चाहा तो उसका कुछ पलों के लिए रुका रुदन फिर से फूट पड़ा -‘क्या पानी पिउं मां, हमें पानी पिलाने वाले ही चले गए।’ पिता बोल-सुन नहीं सकता, मां स्तब्ध है और मौसी का चीत्कार दिल को दहला देता है। अपनी युवा बहन रंजना शुक्ला की शादी का सपना संजोये दोनों भाई कुछ कमाने के लिए निकले थे। उन्हीं तैयारियों में बड़े उत्साह से मकान बनवाना शुरू किया था। छत पड़ने ही वाली थी और आसमानी आफत ने घर आंगन की नींव को दरका दिया। बनते हुए मकान में बल्लियां अभी भी वहीं टिकी हुई इंतजार कर रही हैं कि उनके दमपर छत भरी जायेगी लेकिन माता-पिता के जीवन के सहारे ढह गए। उनकी लाशें नहीं मिलीं लेकिन एक माह बीत जाने के बाद जैसे उनकी उम्मीदें भी अब आंसुओं के सैलाब में बहती जा रही हैं। माता-पिता और मौसी का क्रंदन तथा बहन के चेहरे की बेनूरी ने मेरे दिल को झकझोर कर रख दिया। उनके साथ मैं भी उस सूने आंगन में देर तक बैठी रोती रही। अपने मन के पक्के संकल्प के साथ मैंने उनसे वादा किया कि हम आपके बेटों को तो वापस नहीं ला सकते लेकिन निश्चित रूप से आपकी इस बेटी की शादी का सारा खर्च परमशक्ति पीठ वहन करेगा।

समझ नहीं आता कि अपनों के बिछोह से पीडि़त लोगों को कैसे सांत्वना दी जाये, कैसे उन्हें संभाला जाये? मुझे लगा कि इस समय इन लोगों को राहत सामग्री के साथ ही स्नेह लेप की जरूरत भी है जो इनके मन के गहरे घावों को भर सके। मैंने परमशक्ति पीठ की अनेक साध्वी बहनों को इस कार्य के लिए उत्तराखंड भेजने की योजना बनाकर उसे मूर्तरूप देने की शुरूआत की है जो इस कार्य को सम्पन्न करेंगी। वे उन महिलाओं तक पहुंचने का पूरा प्रयत्न कर रही हैं जिनके पति या बेटे इस आपदा में या तो लापता हैं या मृत हो चुके हैं। संस्था से जुड़े हमारे भाई क्षतिग्रस्त हुए गांवों की नुकसानी का आकलन करेंगे और वास्तव में जिन्हें आवश्यकता होगी उन तक सहायता सामग्री पहुंचाएंगे। यह कार्य लंबे समय तक चलाये जाने की आवश्यकता है और बहुत व्यापक स्तर पर इसमें समाज के सहयोग की आवश्यकता होगी। मैं सभी देशवासियों से अपील करती हूं कि वे परमशक्ति पीठ को इस पुनीत कार्य में सहयोग देकर उत्तराखण्डवासियों की सहायता करें। 

वहां चारों तरफ बस भय ही भय है। मृत्यु के इस भय के बीच में जिंदगी कैसे जी जाती है यह पहाड़ों के बीच बसे इन गांवों में देखा जा सकता है। अजीब-अजीब सी घटनायें घट रहीं हैं। दर्द से कराह रही देवभूमि के दर्शन की इस यात्रा के अंतिम दिन हम जिस मकान में रुके थे, आधी रात के बाद उसके पास स्थित मकान से भयंकर विस्फोट की आवाज सुनकर हम लोग बाहर निकले। पास के मकान की छत उड़ चुकी थी, उसकी दीवारें चारों ओर बाहर की तरफ बिखरी हुई थीं। सौभाग्य की बात थी कि उस घर में कोई जनहानि नहीं हुई। हमने पता किया कि कहीं कोई गैस सिलेण्डर का विस्फोट तो नहीं हुआ। लेकिन घर के लोगों ने अंदर किसी भी प्रकार के विस्फोट से इंकार किया। बाहर बारिश या मकान पर बिजली गिरने जैसी भी कोई घटना नहीं हुई थी। वह एक रहस्यमयी विस्फोट था जिसने उस मकान के परखच्चे उड़ा दिए। इस घटना का आशय यह निकला कि वहां अभी भी प्रकृति कु्रद्ध है। पहाड़ों की टूटन जारी है।     
 
हमारी भारतीय संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कार, प्रकृति के प्रति सहदय होने की प्रेरणा देते हैं। हमने अपने चित्त के अंदर जब भी परमात्मा को पाने की जिज्ञासु वृत्ति को देखा तो अनुभव किया कि नहीं हमें हिमालय की गोद में हरितिमा और प्रकृति जहां आनन्द और उत्सव के साथ अपने आपको प्रकट करती है वो देवभूमि वो देवलोक जहां हम अपने देह, मन और इन्द्रियों के साम्राज्य से परे, माया के जाल से मुक्त होकर उस परमात्म सत्ता को अनुभव कर सकते हैं तो सहज रूप से हमारे चरण उठते हैं देवभूमि हिमालय की तरफ। उत्तरांचल का वह क्षेत्र जहां बद्री भगवान अपनी विशालता को लिए हुए विराजमान हैं। नर-नारायण जहां नित्यप्रति तप-निरत हैं और केदारनाथ भगवान जहां अपने पूरे शिवत्व के साथ प्रकृति के उस अद्भुत और विहंगम दृश्यों के बीच विराजमान हैं। जहां गौमुख से निःसृहित होने वाली गंगा और यमुना मैया का उद्गम स्थान यमुनोत्री। ये चारधाम की यात्रा प्रत्येक भारतीय के हदय में एक चाह के समान होती है कि जिंदगी में कभी न कभी हमें ऐसे अवसर मिलें जब यह यात्रा कर सकें।

बहुत वर्षों पहले जब भारत में तीर्थयात्री यात्रा करता था तब उस यात्रा के पीछे तप की दृश्टि थी। साधना का मर्म था। परमात्मा को पाने की चित्त के अंदर जिज्ञासा थी। यात्री उस भावना के साथ यात्रा प्रारंभ करता था कि यदि अब लौट के नहीं भी आना होगा तो मन की पूरी तैयारी है इसके लिए। जीवन के उत्तरार्ध में, जीवन के चैथेपन में मोक्ष के द्वार पर दस्तक देने के लिए कोई भी जिज्ञासु, मुमुक्षु या भक्त केदारनाथ भगवान की शरण में जाता था। धीरे-धीरे आधुनिकता का प्रभाव हम पर हुआ और हम सुविधाभोगी जीवन जीने के आदी हुए। हम जीवन के ‘कम्फर्ट झोन’ में जीना चाहते हैं। तीर्थयात्रा में रहकर भी तीर्थत्व का भाव न रहते हुए जब मनोरंजन का भाव प्रबल हुआ तो फिर इस यात्रा का स्वरूप बदला। बड़ी संख्या में बाल-बच्चे और युवा जोड़े इन तीर्थयात्राओं की तरफ उन्मुख हुए। एक ओर तो यह बहुत संुदर लगता है कि हमारी युवा तरुणाई तीर्थयात्राओं पर जा रही है, लेकिन दूसरी ओर लगा कि इस यात्रा के पीछे जो यात्री का एक चित्त होता है, भगवान को पाने की अभिलाषा होती है वह नहीं थी। वर्षों पहले इस यात्रा में दुर्गम रास्तों और पर्वत श्रंृखलाओं के बीच में भीषण ठंड को झेलते हुए यात्री तप-निरत रहता था। मौन रहते हुए उस परम स्थिति को प्राप्त करने के लिए वह यात्रा एक साधना की तरह होती थी। अब वह समय बीत गया है। हम सब सुविधा में जीना चाहते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि यात्रा, यात्रा नहीं रह गई। तीर्थों में जाकर तीरथवास करने के भाव से हम कोसों दूर चले गए। दुष्परिणाम सामने है। प्रकृति कुपित हुई, देव कुपित हुए और हमने देखा कि कैसे मनुष्यता विवश होकर मंदाकिनी के प्रवाह में तिनकों की तरह बिखर गई। हमारी व्यवस्थायें बिखर गईं। हम अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के जिन भवनों को मंदाकिनी के प्रवाह मार्ग में बनाकर बैठे थे वो ताश के पत्तों की तरह ढह गये। परिणामस्वरूप बहुत दण्ड भोगा। किसने भोगा यह दण्ड? सारे देश ने यह दण्ड भोगा लेकिन सबसे ज्यादा उन्होंने भोगा जिनका कोई दोष नहीं था। उन बहनों, उन देवियों का क्या दोष जिन्होंने अपनी मांग के सिंदूर खो दिए, अपने पुत्रों को खो दिया। मै इस दृष्टि से उत्तरांचल के प्रवास में आई कि मैं स्वयं वहां देखूं कि वहां क्या स्थिती है, हम कहां किस पीडि़त के साथ किस प्रकार से खड़े हो सकते हैं।
    
उत्तराखंड के उन गांवों में जाकर यह दर्दनाक बात पता चली कि दसवीं-बारहवीं कक्षाओं के अधिकांश बच्चे उस
जल त्रासदी में समा गए। माताएं प्रतीक्षा करती रह गईं अपने बच्चों की। देवियां अपने पतियों की प्रतीक्षा करती रह गईं। उनके रुदन, उनके विलाप चित्त को विव्हल करते हैं। उनके हदय से उठती हूक दिशाओं को भी क्रंदित कर देती है। हमारे जैसे साधु-साध्वियों का चित्त भी मौन हो जाता है। ढांढस के शब्द छोटे पड़ जाते हैं। इन सारी विडंबनाओं के बीच चिंतन चलता है कि हम कहां थे और आज कहां आ पहुंचे। अगर देखा जाये तो उत्तरांचल का जीवन ही अपने आप में एक त्रासदी है। केदारनाथ, उखीमठ और उत्तरकाशी के गांव-गांव मंे घूमते हुए मैंने अनुभव किया कि वहां कि प्रत्येक रात दुःखों और मुसीबतों से भरी हुई है। तेज बारिश कहीं हमारी छत को न बहा ले जाये। पहाड़ का मलबा कहीं हमारे पूरे घर को ही समेटकर नहीं में न गिरा दे, इन सारी आशंकाओं के बीच वहां के निवासियों की रातें कटती हैं। जाने कब बादल फट जायें और विपत्ति जाने किस रूप में जाने कब सामने आकर खड़ी हो जाये। यात्रा करते समय हमने देखा कि हमारे सामने ही पर्वत से एक बड़ा पत्थर टूटकर नीचे गिरा और वहां खड़े एक तरुण की मृत्यु उसके आघात से हो गई।
    
भय के बीच में जीवन कैसे जिया जाता है इसे मैं अभी उत्तराखण्ड में देखकर आई हूं। मन में चिंतन चल रहा है कि इन सारी परिस्थितियांे के बीच हम क्या कर सकते हैं मैं तो बस यही संभावनायें तलाश रही हूं। यहां मृत्यु को साक्षात नृत्य करते हुए मैंने देखा है जहां प्रत्येक व्यक्ति बस मृत्यु से ही घिरा हुआ हैै। मृत्यु के इसी तांडव के बीच जीवन को संभालना बस यही इंसानियत का गौरव और जीवन की धन्यता है।
    
मुझे लगता है कि कदाचित् हमने प्रकृति के साथ अपना सहधर्म निभाया होता तो शायद यह स्थिति नहीं आती। हमारी पूरी पूजा पद्धति, हमारी मान्यताएं, परंपराएं प्रकृति के साथ सहधर्म निभाने की पे्ररणा देती हैं। हमारे कर्मकाण्ड आप देख लीजिए जिसमें तुलसी है, दुर्वा है, पुष्प हैं, बिल्व पत्र हैं। प्रकृति के माध्यम से हम परमात्मा को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे समय में जब हमारी महत्वाकांक्षायें सिर उठा रही हैं तब हम प्रकृति का दोहन-शोषण कर रहे हैं। मां के स्तन से दुग्ध का पान तो शोभा देता है लेकिन मां के स्तन से रक्त का पान करें यह निश्चित रूप से अशोभनीय है। हमने प्रकृति के साथ बिलकुल ऐसा ही व्यवहार किया है। उसके दोहन की सारी सीमाओं का अतिक्रमण हमने किया। परिणाम सामने है। 
    
हिमालय के शिखरों पर जहां भगवान केदारनाथ अपने विभिन्न रूपों में विराजमान हैं हमने इन पुण्यस्थलों को पिकनिक स्पाॅट बना डाला। भगवान शिवशंकर जहां शान्त भाव से तप-निरत रहते हैं हमारे कोलाहल ने निश्चित रूप से उसमें व्यवधान डाला है। लोग पहले वहां जाते थे और भगवान को प्रणाम करके लौट आते थे, एक नई ऊर्जा से भरकर। लेकिन आज वहां जाने कितने होटल बना दिए गए हैं। जब हम लंबे समय तक देवों या गुरु के पास रहते हैं तो उनके सम्मान में मर्यादायें बनाये रखना कठिन होता है।
    
शायद भगवान केदारनाथ को यात्रियों का यह अमर्यादित व्यवहार पसंद नहीं आया। वहीं पर मलमूत्र का त्याग करना, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना, संभवतः यही दुराचरण इस विनाशलीला का कारण बना और भगवान ने एक ही क्षण मंे यह सब समेट दिया। प्रकृति ने हमें हमारी सीमायें बता दीं। अब समय आ गया है हमारे आत्मचिंतन का। विकास कैसा होना चाहिए इस पर चिंतन होना चाहिए। आज हिमालय में विकास के नाम पर चारों ओर डायनामाइटों के विस्फोट किए जा रहे हैं। एक विस्फोट होता है और चारों दिशाएं हिल जाती हैं। चारों ओर पर्वत शिखरों का क्षरण हो रहा है। हिमालय का मलबे में बदलना निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारी व्यवस्थाओं में प्रकृति के प्रति संवेदना होनी चाहिए।
    
भारत ने सदैव कहा है कि त्यागपूर्वक भोगने में ही सुख है। जब त्याग जीवन का लक्ष्य नहीं रह जाता तब मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता वह भक्षी बन जाता है। वह प्रकृति का भक्षण करता है, वह मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, वह धर्म के द्वारा प्रदत्त मान्यताओं का भक्षण करता है। और जहां धर्म भी व्यापार जाये, जहां भगवान के सम्मुख खड़े होने के लिए भी तुम्हें दो नंबर के रास्ते तलाशने पड़ें, वहां दुर्भाग्य के अतिरिक्त फिर और कुछ हो ही नहीं सकता। पैसा दोगे तो फिर शार्टकट में भगवान के दर्शन हो जाएंगे। क्या भगवान केदारनाथ को यह स्वीकार होगा कि एक ओर तो जिनके पास पैसा नहीं है वह पसीने से लथपथ जनता घंटों तक पंक्ति में खड़ी रहकर उनके दर्शनों की प्रतीक्षा करे और आप धन के बल पर कुछ मिनटों में ही भगवान के सम्मुख पहुंच जायें। जिन्हांेने प्रकृति का अपमान किया वे मेरी मूर्ति की आराधना करने आ गए। नहीं भगवान को यह स्वीकार नहीं हुआ। और संभवतः उनका ऐसा भीषण तांडवी रूप हमारे सम्मुख आया है।
    
आने वाला समय कैसा होगा मैं यह बता नहीं सकती क्योंकि मैं भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन निश्चित रूप से उत्तराखण्ड के इस प्रवास ने चित्त को बहुत व्याकुल किया है। मैं घर-घर गई, गांव-गांव गई, एक-एक बहन को गले लगाया, उसकी आंखों के बहते अश्रु प्रवाह के आगे कदाचित मंदाकिनी का प्रवाह भी मद्धिम लगा। वह प्रवाह प्रश्न करता है कि आखिर हमारा क्या दोष था? ये किसके कर्माें का दण्ड हमें भोगना पड़ा? शब्द को ब्रम्ह कहा जाता है लेकिन शब्द ब्रम्ह से भी परे है उस अबला के दुःख को व्यक्त करना जो इस जगत में नितांत अकेली रह गई हो, जिसने अपने किशोरवय बच्चों को खो दिया हो, जिसकी पथराई हुई आंखें आज भी प्रतीक्षा करती हैं कि जाने कौनसे पहाड़ से उतरकर मेरा पुत्र मेरे घर-आंगन को महका देगा। ऐसी विलाप करती माताओं, बहनों और पत्नियों के बीच बैठकर ऐसा लगा जैैसे कि यदि कोई पत्थर भी हो तो शायद इनका दर्द अनुभव कर पिघल जाएगा। इन सबकी सहायता करने के लिए हमने ऊखीमठ और गुप्तकाशी में परमशक्ति पीठ वात्सल्य सेवा केंद्र स्थापित किए हैं जहां लगातार प्रवास करके हमारी साध्वी बहनें और कार्यकर्ता भाई प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन और उन्हें वांछित सहायता पहुंचाने का हरसंभव प्रयत्न करेंगे। उत्तराखण्ड के इन प्रभावित क्षेत्रों में लंबे समय तक कार्य करके वात्सल्य अपनी भूमिका निभायेगा।     
- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, अगस्त २०१३

Thursday, August 8, 2013

हरि सुमिरन ही जितेन्द्रिय हो जाने का एकमेव मार्ग है

जब वस्त्र फट जाता है तो धनी व्यक्ति उसे फेंक देता है लेकिन गरीब अपने फटे हुए वस्त्रों को फेंकता नहीं बल्कि वह उनमें पैबंद लगाकर फिर से पहनने के उपयोग में लेता है। किन्तु यदि कभी आसमान फट जाये तो क्या आप उसमें पैबंद लगा सकते हो? आप कहोगे दीदी माँ यह तो संभव ही नहीं है। भला आसमान में पैबंद कैसे लगाया जा सकता है! मेरे बंधुओं और भगिनियों, कामना एक  ऐसा ही बादल है जिसके फटने पर आप पदार्थों का पैबंद लगाकर उसे ठीक करने का प्रयत्न नहीं कर सकते। चाहे जितना प्रयत्न कर लो लेकिन इच्छाओं और वासनाओं से कभी निवृति नहीं हो सकती। मृत्यु के समय जब देह छूट रही हो तब भी मनुष्य को तृष्णा नचाती है। आशा और तृष्णा पीछा नहीं छोड़तीं क्योंकि वो कभी नष्ट ही नहीं होतीं। बचपन के दिन अबोधपन में खो जाते हैं, युवावस्था को वासनाओं के चरणों में न्यौछावर किया और वृद्धावस्था चिंताओं को अर्पित हो गई। अब देह नहीं चलती, अब केवल चिंता है। जिनकी देह चलती है उनको उतनी चिंता नहीं है जितनी कि बुजुर्गों को है। यदि यहाँ पहुंचकर चिंता की बजाय चिंतन किया होता तो जीवन धन्य हो गया होता। जीवन में क्यों आए हो और जब मृत्यु नजदीक हो तो क्या करना है? यह सहज प्रश्न हैं जो लोगों के मन में उठा करते हैं। राजा परीक्षित ने भी शुकदेव जी से यही प्रश्न किया था तब शुकदेव जी महाराज ने कहा था कि तेरा यह प्रश्न लोकहित कारी है राजन्। यह केवल परीक्षित का ही प्रश्न नहीं बल्कि समस्त जीवों का प्रश्न है।  

सबसे पहली बात तो यह है कि जो नहीं बचेगा उसे भी देखो और जो बच जाएगा उस पर भी दृष्टि डालो। जो नहीं बचेगा वह दृष्टिगोचर हो रहा है, वह दृश्यमान जगत है। वह नहीं रहेगा, वह नहीं टिकेगा। हम गंगा का जल अंजुलि में भरकर उसे रोकने का प्रयत्न करते हैं और वह थोड़ी ही देर में अंगुलियों के बीच से बह जाता है। हम कहते हैं कि अरे अंजुलि का जल बह गया। अरे भाई, जब गंगा के किनारे ही बह गए तो भला यह अंजुलि भर जल कैसे रोक लोगे। जिसे जाना है, जिसे नष्ट होना है वह तो होगा ही। जीवन-मरण का यह प्रवाह अनादिकाल का शास्वत सत्य है। लोग अपने स्वजन-संबंधियों को अपने कंधों पर श्मशान तक छोड़कर आते हैं लेकिन कभी भी स्वयं की मृत्यु का चिंतन नहीं करते। दुनिया में जो लोग भी अपनी मृत्यु का चिंतन कर सके वे कभी भी विचलित नहीं हुए। लोग कभी-कभी बड़ी ही विचित्र चिंताएं करते हुए दिखाई देते हैं। मेरे पास कुछ बंधु आए जो श्मशान की बाऊंड्री वाल बनाने के प्रयास में चिंतित थे कि कैसे इसकी व्यवस्थायें जुटाई जाएं। मैंने कहा भाई बड़ी ही विचित्र चिंता है ये आपकी। निश्चित रहिये, श्मशान, श्मशान ही रहने वाला है उसपर कोई कब्जा नहीं करेगा क्योंकि उसमें जो रहते हैं वो बाहर नहीं आ सकते और जो बाहर हैं वो अपनी मर्जी से भीतर जाने की इच्छा नहीं रखते जब तक कि परमात्मा का बुलावा न आ जाये। न जाने कैसी-कैसी दुष्चिंताएं मन में पाले बैठे हैं लोग, देखकर आश्चर्य होता है। स्वयं के बचे रहने की चिंता करने का कोई अर्थ नहीं है बल्कि वह तो जीवन के आनन्द को ही नष्ट कर देती है।

सन्त सावधान करते हैं, जगाते हैं कि अपने स्वरूप में जागो और बंधनों से मुक्त रहो। आनन्दपूर्वक भगवान का भजन करो। जीवन में कुसंगों से हमेशा बचो। कुसंग ही है जो इस देहरूपी गाड़ी को पटरी से उतार देता है। मित्र बनाओ लेकिन इस बात का सदैव ख्याल रखो कि तुम्हारा साथी कहीं तुम्हें कुसंग की ओर न ले जाये। प्रतिदिन प्रातःकाल जागो और परमात्मा का धन्यवाद करो कि उसने तुम्हें आज की भोर देखने के लिए जीवित रखा। ध्यान में बैठकर अपनी देह को साधो, अपनी श्वांसों के प्रति सजग रहो। क्रोध में तुम्हारी सांसें धोंकनी की तरह चलती हैं। याद रखना जो जितनी तीव्र सांसें लेता है उसका जीवनकाल बहुत ही कम होता है। कुते की श्वास धोंकनी की तरह चलती है ना? वह कितने वर्ष जीता है? केवल 12 या 14 वर्ष लेकिन कभी कछुए को देखा। कभी-कभार ही श्वास लेने के लिए पानी के बाहर अपनी गर्दन निकालता है लेकिन कितनी लंबी आयु जीता है वह बरसों-बरस तक। श्वास गहरी हो तो जीवन लंबा होता है। श्वासों का नियमन करो और अपनी देह को, अपनी इन्द्रियों को साधो। आंखों से ही सबकुछ हमारे मन के भीतर प्रवेश करता है इसलिए सबसे पहले अपनी आखों को नियंत्रण में करो। आंखों से देखो नहीं दर्शन करो। हम आगरे का ताजमहल देखने जाते हैं तो सबसे कहते हैं कि हम आगरे का ताजमहल देखकर आ रहे हैं। लेकिन जब वृंदावन में बांके बिहारी जी के मन्दिर से लौटते हो तो सबसे क्या कहते हो? यही कहते हो ना कि हम बिहारी जी का दर्शन करके आ रहे हैं। बस यही फर्क है देखने और दर्शन करने में। अपनी दृष्टि का संयम करो। सृष्टि के हर नजारे का दर्शन वैसे ही करो जैसे शुद्ध भाव से परमात्मा का दर्शन करते हो। सारे जगत के हर प्राणी और हर वस्तु में भगवान के विग्रह का ही दर्शन करो। कानों से श्रवण करो। उन सत्संगों का श्रवण करो जो तुम्हारे जीवन को बदल देने की क्षमता रखते हैं। हाथों से केवल अपना श्रृंगार ही न करो बल्कि उनसे उन नन्हीं सूरतों की साज-सम्भाल करो जिन्हें उनके अपनों ने ही छोड़ दिया जीवन के दोराहे पर। देखो उनकी मुस्कुराहटें तुम्हारे जीवन को खुशियों से भर देंगी। ध्यान रखो कि तुम्हारे कदम मयखानों की दहलीज पर न जायें, अगर ऐसा हो तो तुरन्त ही सजग होकर उन्हें संयमित करो। परमात्मा के प्रेम अनुराग में डूबकर उन्हें विवश कर दो देवालयों की ओर उठने को। यही है इन्द्रियों को जीत लेने की कला और जिस दिन तुम यह कला सीख जाओगे बस उसी दिन जीवन में चमत्कार घटित होगा। फिर कोई पराया नहीं होगा, सब अपनी ही प्रतीत होंगे। फिर कहीं कोई ईष्र्या नहीं होगी तुम सबके प्रति अगाध स्नेह से भर उठोगे। फिर तुम आधा गिलास खाली है ऐसा नहीं कहोगे बल्कि तुम्हें आधा गिलास भरा हुआ प्रतीत होगा।
                                                                                                              - पूज्य दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 
                                                                                                    सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जनवरी 2013

Monday, August 5, 2013

परमात्मा स्वरुप हैं सदगुरुदेव...

जब वो मुस्कुराते हैं तो लगता है कि हम सबके लिए मोक्ष का द्वार खुल गया। हम बहुत सारे शिष्य-शिष्याएं हैं गुरुदेव के लेकिन सबका उनके साथ एक अलग तरह का बहुत ही खूबसूरत सा अंतरंग रिश्ता है। उस जगह को उनके सिवाय कोई और दूसरा भर ही नहीं सकता। उनकी सन्निद्धी में रहते हुए एक सुनिश्चित सुरक्षा का भाव मन में रहता है। गुरुदेव के लिये कुछ भी चयनित और चिन्हित नहीं होता। कई बार लोगों को लगता है कि गुरुदेव पात्रता देखते हैं। मेरा ऐसा अनुभव है कि वे कभी भी किसी की पात्रता नहीं देखते। वे तो बस बादलों के समान बरस जाते हैं। जब हम गुरुदेव के आश्रम में आए  तो बहुत बार लगता था कि यहाँ के लिए कुछ करने वालों को बहुत प्रतिष्ठा मिलती होगी। जैसे आश्रम में कोई एक कमरा बनवा देता था, उसके द्वार पर उसके नाम का एक शिलापट्ट लगा होता। उनमें से कई लोग इसी अभिमान से भरे होते थे कि हमने इस आश्रम के लिए एक कमरा बनवा दिया। वो लोग बार-बार अपने उस कृतित्व को व्यक्त करते।

यह सब देखकर हमने भी सोचा कि चलो अपन भी कुछ गेहूँ इकट्ठा करते हैं आश्रम के लिए, शायद यहाँ पर अपना भी कोई विशेष सम्मानजनक स्थान बन जाये। नये-नये दीक्षित हुए  थे, बालमन लिए हुए निकल पड़े। गाँव-गाँव भटकते रहे। एक जगह जाँच  चैकी पर चेंकिंग के नाम पर पुलिस ने हमें दो दिन तक रोके रखा। इस  तरह बहुत सारी परेशानियों के बाद हम गेहूँ इकट्ठा करके वापिस आश्रम पहुँचे। सोचा कि गुरुदेव बहुत प्रसन्न होंगे, सबके बीच हमारी जय-जयकार हो जायेगी। लेकिन गुरुदेव के चरणों में बैठकर जब उनके मुख की ओर देखा तो लगा कि उनपर जैसे कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई उस गेहूँ संग्रहण को लेकर। वे कुछ नहीं बोले लेकिन निश्चित तौर पर मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे उनका मौन मुखरित हो उठा और वे बोल रहे हैं कि -‘ऋतंभरा, आश्रम में अपनी जगह या प्रतिष्ठा बनाने के लिए इतना भटकने की क्या आवश्यकता थी, उसके लिए तो तुम्हारा समर्पण ही पर्याप्त है।’    

गुरु के आश्रम में करना या ना करना मायने नहीं रखता मात्र समर्पण ही उनकी नज़रों में आपको श्रेष्ठता प्रदान कर देता है। जो समर्पित हो गया है, वह बिन्दु जो सिन्धु में मिल गई है उसका जो आनन्द हो, उसकी विराटता का जो रोमंाच है वह बिन्दु बने रहने में संभव नहीं है। ऐसा लगता है कि हम अपने आप में कुछ नहीं होते। कई बार हमें संग का रंग जम जाता है। हमारे आश्रम में कुछ लोग आये और कहने लगे कि हमें बद्रीनाथ जाना है। हमने कहा -गुरुदेव, ये लोग बद्रीनाथ जा रहे हैं, मुझे भी जाना है।’ गुरुदेव बोले -‘तुम क्या करोगी वहाँ?’ मैंने कहा -गुरुदेव, भगवान हैं वहाँ, उनके दर्शन करूँगी।’ वे बोले -‘क्या यहाँ भगवान नहीं हैं?’ मैंने सोचा कि अब क्या करूँ, जाने का मन तो है और जो गुरुदेव कह रहे हैं वो भी सत्य है। मैंने कहा -‘गुरुदेव, वहाँ पहाड़ हैं, सुन्दर हरियाली से भरे हुए।’ गुरुदेव ने हरिद्वार के आश्रम से ही दिख रहे मन्सादेवी पर्वत की ओर संकेत करते हुए कहा -‘वो देखो, सामने हरियाली से भरा हुआ सुन्दर पर्वत।’ मैंने कहा -‘गुरुदेव, बद्रीनाथ के उन पहाड़ों पर बर्फ होती है।’ गुरुदेव ने पास खड़े शिष्यों से कहा -‘ज्योति को बर्फ पसंद है जाओ जरा जाकर बर्फ की दो चार सिल्लियाँ ले आओ और इसके आस-पास रख दो।’ मैंने कहा -गुरुदेव, आप मेरा बद्रीनाथ जाने का किराया नहीं देना चाहते।’ गुरुदेव कुछ क्षण मेरी ओर देखते रहे और बोले -‘अच्छा, हम किराया नहीं देना चाहते?’ यह कहते हुए उन्होंने अपनी जेब से कुछ रूपये निकालकर मेरी गोद में डाल दिये।

मुझे तो बस बद्रीनाथ जाने की लगी थी सो वो रूपये उठाकर रख लिये और उन गृहस्थियों के साथ हरिद्वार से बद्रीनाथ की ओर रवाना हो गई। जब ऋषिकेश के बस अड्डे पर पहुँचे तो वहाँ सूचना प्रसारित हो रही थी कि बद्रीनाथ के रास्ते पर एक बड़ा पहाड़ गिर गया है और अब सात दिनों बाद ही वह रास्ता खुलने की संभावना है। जिनके साथ मैं गई थी वो सारे गृहस्थी गंगा स्नान कर रहे थे, ऋषिकेश के मन्दिरों के दर्शन कर रहे थे लेकिन मैं जस की तस मूर्ति बनी बैठी थी। मेरे अंतर्मन ने मुझे अधिकार ही नहीं दिया कि मैं अंजुलि भरकर गंगाजी का आचमन ही कर लूँ। सांझ हुई तो मैं वापिस हरिद्वार आ गई। अब मेरा अहंकार मुझे बाधा डाल रहा था कि मैं कैसे गुरूजी के सामने जाऊँ। इसी सोच विचार में आश्रम के निकट रानी गली से गुजर रहे नाले के ऊपर बनी पुलिया पर ही मैं बैठ गई। मैंने सोचा यहीं बैठी रहूँ, कोई न कोई सन्त-महात्मा मुझे देख ही लेगा और वो गुरूजी को बता ही देगा। वही हुआ भी। किसी ने गुरूदेव को बताया कि मैं वहाँ बैठी हुई हूँ। गुरूदेव ने आश्रम के द्वार पर आकर मुझे वहीं से आवाज लगाई -‘आ जाओ, आ जाओ, लौट के बुद्धू घर को आये।’ मैं दौड़कर गुरुदेव के चरणों से लिपट गई। उनके सामने ही मन में पक्का निश्चय किया कि जहाँ गुरुदेव की इच्छा नहीं होगी वहाँ कभी नहीं जाऊँगी भले ही वह भगवान का घर ही क्यों न हो। क्यांेकि उनके संकल्पों से ही हम चलते हैं उनकी प्रेरणा ही है जो हमारी गति बन जाती है।

ऐसे सद्गुरुदेव जिन्होंने वत्सलता दी, प्रेम दिया, हमें तराशा। कल कोई हमसे पूछ रहा था कि आप सबसे ज्यादा किनके लिए व्याकुल होती हो?’ मैंने अपने आपको बहुत टटोला। क्योंकि मैं बहुतों को प्यार करती हूँ। वात्सल्य ग्राम के बच्चे, वात्सल्य परिवार के मिशन से जुड़े उन सब लोगों को स्नेह करती हूँ जो दिन रात उसकी सफलता के लिए कार्यरत् हैं। लेकिन प्राण तो गुरुदेव के चरणों में आकर ही खिलते हैं। मैं सोचती हूँ कि हम इतने अर्पित क्यों हो गये? फिर मुझे लगता है कि गुरुदेव ने कभी भी हमारी निजता का हनन नहीं किया। उन्होंने हमें पूरी तरह से खिलने दिया। नहीं तो एक संन्यासिन अपनी ममता बच्चों पर लुटाये ये दृश्य भारत की परंपरागत संन्यास परंपरा से मेल नहीं खाता। मेरे गुरुदेव ने कभी भी हम पर बाहर से कुछ नहीं थोपा और हमें अपनी निजता के साथ ही खिलने दिया। उन्होंने हमें हमेशा अपनी तरह से कार्य करने की आजादी दी। निश्चित रूप से वो ये जानते रहे होंगे कि यदि मैं इस प्रक्रिया से नहीं गुजरी तो कहीं न कहीं अधूरी रह जाऊँगी। मेरा मातृत्व कहीं अतृप्त रह जायेगा। हमने जो भी पाया है अपने गुरुदेव के चरणांे में पाया है। किसी ने कितना कर लिया, कितना पा लिया, कितनी प्रतिष्ठा और यश को पा लिया...यह सब तुच्छ है, गौण है। गुरुदेव के चरणों में बैठकर, उनकी कृपा का प्रसाद पाकर जिस धन्यता का अनुभव होता है वह एक विराट का शहंशाह बन जाने जैसी अनुभूति है।

अपने गुरुदेव के प्रेम में पगे हुए हम सब रात-दिन कार्य करते हंै। कभी बोझिल नहीं होते, कभी नहीं थकते। बस यही है वह विधा जो हमने  अपने सद्गुरु को देख-देखकर पाई है। एकबार हमने ऐसा दृश्य देखा कि जब आश्रम के सारे साधक विश्राम कर रहे थे तब वहां बने 32 शौचालयों के पास बने गटर का ढक्कन खोलकर गुरुदेव उसमें से फावड़ा भर-भरकर मल निकालकर ट्राली में भरकर दूर कहीं फिंकवा रहे हैं। मुझे लगा कि कैसे प्यारे सद्गुरु हैं जो केवल मन के कल्मष को ही नहीं ध्वस्त करते बल्कि साधकों के तन की गंदगी को भी स्वयं साफ करके उन्हें निखारकर उनका आत्मबोध जाग्रत कर देते हैं। मेरे गुरुदेव केवल व्यासपीठों पर बैठने वाले नहीं बल्कि मेहनत के मसीहा हैं।

मुझे लगता है कि शायद आने वाला युग इन सब बातों के लिये तरस जायेगा। इन बातों का यह जो अनिवर्चनीय आनन्द है उसके लिए न तो ऐसे गुरु होंगे और न ही शिष्य। एक दिन गुरुदेव कह रहे थे कि अच्छे व्यक्तियों के गुणों का उत्तराधिकारी मिलना चाहिये। ऐसा हो सके तो चित्त में प्रसन्नता होगी। परिश्रम करना, हरपल आनन्दित रहना, पगों में नृत्य उतार लेना, मन के आंगन को उत्सव वातावरण में रंग देना, हृदय को गौरीशंकर बना लेना, सबके बीच रहते हुए भी निर्लिप्त रहना यही तो मेरे गुरुदेव की दिव्यता है। हमने भगवान तो नहीं देखे लेकिन परमात्मा के रूप में गुरुदेव को देखा है। कभी वो बच्चों जैसी किलकारियां भरते हैं और कभी हम सबको एक मां के जैसे अपने आंचल में समेट लेते हैं। इसी जगत में कई ऐसे लोग हैं जो बड़े-बड़े गुरुओं के चेले होकर भी अपने गुरु के दर्शन को तरस जाते हैं लेकिन हम कितने भाग्यशाली हैं जो हम उसके साथ सहजता से मिलते हुए उनके क्षण-प्रतिक्षण पर कब्जा कर लेते हैं कि हे गुरुदेव अति आग्रहपूर्वक आपके समय के भी अधिकारी हैं। अपनी उदारता का ऐसा प्रसाद बांटने वाले सद्गुरुदेव जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि वंदन अर्पित करती हूँ।   

                                                                                                                            -दीदी मां साध्वी ऋतम्भरा
                                                                                                       सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जुलाई 2013

Friday, August 2, 2013

क्या तुम यह कर सकोगी माते?

वाणी की धनी, सरस्वती की कृपा पात्र, अन्नपूर्णा के रूप में सबको धन्य करने वाली, मकान को घर  बनाने वाली, संध्या के दीपों से घर को जगर-मगर करने वाली, प्रातः की प्रार्थना में अपने बच्चों को संस्कार देने वाली, इस धरा को, फिजाओं को, आसमान को एक नई रौनक देने वाली, तुम तो साक्षात् जननी हो माते, तुम निर्मात्री हो, तुम मानवता की टकसाल हो, अतीत के भारत में तुम कहीं पिछड़ी नहीं थीं। अगर ऐसा होता तो भारत के श्रेष्ठ पुरुष तुम्हें वरने के लिए लाइन लगाकर क्यों खड़े होते और तुम उसमें अपने गुणों और योग्यता के अनुरूप वर कैसे चुनतीं। अगर तुम अज्ञानी होतीं तो क्या मंदालसा बनकर अपनी संतानों को आत्मज्ञान दे सकती थीं? अगर तुम अज्ञानी होतीं तो अपनी लोरियों में ब्रह्मज्ञान की गूंज कैसे गुंजा  सकती थीं। अगर तुम केवल चूल्हे-चैके की सीमा में बंधीं होतीं तो राजा दशरथ के साथ कैकेयी क्या युद्ध के मैदान में डटी होतीं? वही आज आप लोग कर रही हो।

तब रथ  का पहिया टूटा था जो आज ‘इनरव्हील’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से की धुरी बनकर महिलाओं की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका को सुनिश्चित कर रहा है। अगर तुम डरपोक होतीं तो हज़ारों-हज़ार विदेशी आक्रमणकारियों के मुण्ड काट-काटकर माँ भारती के चरणों में अर्पित करने वाली झाँसी की रानी नहीं बन सकती थीं। अगर तुम असहाय होतीं तो फिर त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, नन्हें बालक बनकर तुम्हारी गोद का आश्रय कैसे पा सकते थे? त्रिदेवों को भी उनके बौनेपन का एहसास कराकर जब तुम सती अनूसुईया बनती हो तब संसार की शक्तियों को भी नन्हे शिशु बनाकर पालने में डाल देती हो। यह भारत का वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसने आसमान की बुलंदियों को छुआ। इसी देश में बीस-बीस हजार छात्रों के गुरुकुल हुए और उनकी आचार्य स्त्री हुई!  जाने कितनी-कितनी ऋचाओं की रचना करने वाली भारत की ही नारियाँ हुईं। निश्चित रूप से कौशल्या की ममता, जानकी की पावनता, अनूसुईया की दृढ़ता और अहिल्या शापित होती है तो केवल भारत नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के नायक यदि उसकी कुटिया में जाकर अपना सौभाग्य अनुभव करते हैं तो निश्चित रूप से आज नारी को यथेष्ट सम्मान मिलने में हमसे कहाँ चूक हो रही है इस बात का चिंतन करना चाहिए। 

गुलामी का काल था इसलिए हम किसी दूसरे पर आरोप लगायें यह उचित नहीं है।  लेकिन स्त्री और स्त्रित्व का भाव जिसने कहीं न कहीं हमें हीन भावना से ग्रसित किया। देश के अन्दर वातावरण बना कि ये जो स्त्रियाँ रजस्वला होती हैं ये दण्ड है। पुत्र, पिता या पति के आधीन रहना ये दण्ड है। मुखापेक्षी होना ये दण्ड है। निश्चित रूप से बहुत व्याकुलता थी क्योंकि स्त्री ने बहुत बुरे दिन देखे। इतने बुरे दिन कि वह मिट्टी की तरह धुनी गई। उसे बच्चे पैदा करने की मशीन समझा गया। उसे पर्दे के भीतर बन्द कर दिया गया। कारण खोजने जाएंगे तो हमें बहुत सारे दूसरे-दूसरे कारण मिलेंगे लेकिन यह बात निश्चित है कि हम अपने अस्तित्व को भूल गये, अपनी गरिमा और अपने गौरव को भूल गये। देश के अन्दर एक विचित्र सा वातावरण बना कि नारी को मुक्ति का मार्ग मिलना चाहिये और वो स्त्री जिसका सशक्तिकरण होना चाहिए था उसे लगने लगा कि पति का प्यार जो कि पायल के रूप में मेरे पैरों में है वह बन्धन है। मुझे इससे मुक्त होना है। देश के अन्दर एक बड़ा विचित्र सा वातावरण बना जिसके कारण घर मकान बनने लगे। रिश्ते दरकने लगे। ‘अर्थ’ का अर्थ तो रह गया लेकिन रिश्तों का अर्थ खोने लगा।

इन सारी परिस्थितियों के बीच देश ने वह दृश्य भी देखें हैं जब राजनीति की चकाचैंध में आने के लिए महिलायें राजनेताओं के कक्ष के बाहर आधी रात तक लगाकर खड़ी रहीं हैं, आखिर क्यों? ऊँचाईयों को छूने के लिए क्या तुम अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करोगी या अपने मातृत्व का गला घोंट दोगी? क्या तुमने अपने स्त्रियत्व को तिलांजलि देकर ही ऊँचाईयों के शिखरों को छूना है। उड़ान भरना अच्छी बात है लेकिन मुझे नहीं लगता कि पूरे समय कोई आसमान में उड़ते रह सकता है। जब पंख थकने लगते हैं तो फिर किसी घरौंदे की आवश्यकता होती ही है, लौटकर वहीं आना पड़ता है। जहाँ बैठकर विश्राम किया जा सके। वो विश्राम मिले रिश्तों का, वो विश्रान्ति सन्तानों की, यदि मैंने घर को मन्दिर नहीं बनाया तो मैं अपने देश का उद्धार भी कभी नहीं कर सकती। कदाचित्, मैं समझूँ कि मैं गंगोत्री की वह बूंद हूँ जो आगे चलकर महापाटों के साथ न जाने कितने-कितने गाँवों को धन्य करती आगे बढ़ती है। कदाचित् मैं समझूँ कि मैं गायत्री की वो गंगा हूँ, मैं जीवन का वो माधुर्य हूँ जिसको पाकर मनुष्यता तृप्त होती है।

बुरा मत मानियेगा, बहुत बार सिगरेट पे सिगरेट पीने वालों को जब मैं देखती हूँ तो मुझे लगता है कि कदाचित् इसको इसकी माँ ने जीभर कर अपने स्तनों का पान करा दिया होता तो आज ये इस सिगरेट में तृप्ति की तलाश नहीं करता। मुझे लगता है कि दामिनी जैसी मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी से पेश आने वाले बच्चों को भी तो जन्म हमारी ही किसी माता ने दिया है ना? क्या हमने उन्हें बताया कि स्त्री केवल शरीर नहीं होती। वो केवल भोगने की चीज नहीं होती। भारत के अन्दर स्त्री ‘भोग्या’ हो ये तो हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वो पूज्या के पद पर जब प्रतिष्ठित थी किसके बल पर आगे बढ़ी? अपनी प्रतिभा के बल पर। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस देश के अन्दर अगर स्त्री संन्यासी हो जाये तो बड़ा विचित्र वातावरण बन जाता था आज से 32 साल पहले। हम अपने गुरुदेव की शरण में आये। कितना वैराग्य था हमारे मन में कि अभी संन्यास चाहिये। संन्यास हुआ। फिर कार्यक्रमों का सिलसिला चल पड़ा। बहुत सारे साधु-महात्माओं के बीच में हम ऐसे चुपचाप बैठे रहते जैसे कि हमने संन्यासी होकर कोई अपराध कर दिया हो। इस देश में वातावरण बना और हम समाज के नवनिर्माण के लिए अपना योगदान देने लगे। ऐसी ही एक बड़ी सभा में अनेक सन्त-महात्माओं के  साथ मंै भी मंच पर थी। एक महात्मा जी बोले -‘ऋतम्भरा तो हमारी शक्ति है।’ यह सुनकर मेरा मन गर्व से भर उठा। लेकिन इस एक वाक्य को सुनने के लिए हमने बरसों-बरस तक भारत के धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करते हुए गली-गली की धूल फाँकी। यह बताते रहे कि जब हम अभय पद पर प्रतिष्ठित होती हैं तो अपनी मृत्यु को भी ललकार सकती हैं

ऐसी निर्भयता कहाँ आयेगी? तो फिर चलो भारत के उन संस्कारों की तरफ अग्रसर हो जाओ जो सुख-दुःख की झूठी चाह से मुक्त कर देते हैं। तुम वही भीतर का केन्द्रबिन्दु हो माते जिसके चारों ओर संस्कारों का पहिया घूमता है। तुम पुरुष को तृप्ति देती हो, संतानों को संस्कार देती हो। तुम्हारी बड़ी अद्भुत भूमिका है। दुनिया कहेगी कि परिचय क्या है? कुछ साल पहले यह होता था कि डाॅक्टर की घरवाली डाॅक्टरनी कहलाती थी। बिना डिग्री के भले ही उसके पास कोई योग्यता नहीं होती थी लेकिन उसे सब डाॅक्टरनी ही कहते थे। ऐसा कहीं होता है। लेकिन हाँ, हमें लगा कि हमारी भी एक पृथक पहचान होनी चाहिये। पहचान की इस छटपटाहट के बीच देश के अन्दर बहुत सारे ताने-बाने बुने गए। मुझे नहीं लगता कि अगर उत्तरदायित्व बन्धन है तो मैंने भी तो संन्यासी होकर एक उत्तरदायित्व लिया।

पालने के अन्दर जिस तरह से बच्चियाँ फेंकी जाती हैं कि सुनकर आपकी रूह काँप उठे। इतने पापी लोग हैं अभी कुछ ही दिन पहले ही एक बच्ची को वात्सल्य ग्राम के पालने में छोड़ गए, इतनी ठण्ड में उसे ठीक से कपड़े में लपेटा भी नहीं। उस बच्ची ने ठण्ड में दम तोड़ दिया। इतनी निर्दयता! यह भारत का एक घिनौना सच है। कहाँ गई इन्सानियत, कहाँ गई मनुष्यता? अगर किसी लड़की ने अपने कुंआरेपन में किसी बच्चे को जन्म दे दिया तो फिर उसे अवैध कहा जाता है। मैं यह कहती हूँ कि रिश्ता अवैध हो सकता है लेकिन सन्तान कभी अवैध नहीं हो सकती। दो जनों के प्यार के बीच तीसरा पुष्प खिलता है। क्या इस देश की मातृशक्ति यह संकल्प लेने को तैयार है कि हम यह तय करेंगे यदि इस प्रकार के संबंधों में किसी संतान धरती पर आ गई है तो हम अपने सम्मिलित प्रयत्नों से उसकी माँ को उसेे गंदगी मानकर कूड़े के ढेर पर नहीं फेंकने देंगे। क्या हमारा समाज इस तथाकथित झूठी इज्जत के खोल से बाहर आयेगा? अपने सच को स्वीकारेगा? क्या हम ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं?
                                                                                          
                                                                                                                            -दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
                                                                                                      सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, फ़रवरी 2013                           

अच्छे इरादों से ही आत्मिक आनन्द मिलता है...

मुझे इस बात का संतोष है कि जिन उद्देश्यों को लेकर प्रतिवर्ष इस ‘बालिका व्यक्तित्व विकास शिविर’ का आयोजन होता है उसमें विभिन्न प्रांतों से भाग लेने वाली बालिकाएं उन्हें पूरी तरह से आत्मसात करने का प्रयत्न कर रही हैं। व्यक्ति यदि सच्चाई और सत्यनिष्ठा के साथ अपना जीवन जीता है तो उसके व्यक्तित्व में गौरव गरिमा जुड़ जाती है। वे जिन जीवन मूल्यों को जिंदगी के साथ लेकर चलते हैं वे उसकी आभा बन जाते हैं। मनुष्य अपनी नियति को स्वयं निर्धारित करता है। सफलता उन्हें ही मिलती है जो कार्य के दौरान डाली गई बाधाओं को पार करते हैं। बच्चों ने शिविर में शिशु के समान बने रहकर बहुत कुछ अच्छा सीखने का प्रयत्न किया इस बात की मुझे बहुत प्रसन्नता है। अनुशासन की कटीली धारों को सहकर बच्चों ने अपनी सुबह से शाम तक की गतिविधियों में ऐसा बहुत कुछ सीखा है जो उन्हें अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को सार्थक करने में बहुत सहायता प्रदान करेगा।

प्यारी बेटियों, हमेशा स्मरण रखना कि कभी भी नाली में पड़ा कंकर शंकर नहीं बनता। शंकर जो वही पत्थर बनता है जिसने नर्मदा की प्रचण्ड और वेगवान धाराओं को सहन करते हुए अपना ऐसा निर्माण कर लिया जिसने उस पत्थर के भीतर भी लोगों को शंकर के दर्शन करने का आनन्द दे दिया। बच्चों, अभी मैं देख रही थी कि आपने राष्ट्रभक्ति से भरपूर सांस्कृतिक प्रस्तुतियां यहां दीं उन्हें प्रस्तुत करते समय आपके चेहरों पर जो उत्साह भरी चमक थी ना वही इस कार्यक्रम की सफलता है। अक्सर ऐसा होता है कि सुबह से शाम तक के कार्यक्रमों में थका देने वाले कार्यक्रमों के बाद मन बुझ सा जाता है। मैंने इस सात दिवसीय शिविर की संयोजिका शिरोमणि जी से कहा था कि शिविर में आने वाली बच्चियों की कोमलता को ज्यादा कष्ट नहीं देना। कोमलता स्वभाव है नारी का। इसको छोड़ कर शायद अपने अस्तित्व के साथ खिलवाड़ हो जाता है। और कोमलता चाहिये मनुष्यता को। अपना स्नेह और प्रेम से भरा हाथ जब किसी के सिर पर रख दोगी ना तो वो मनुष्यता को अर्जित कर लेगा।

बच्चों, उत्तराखण्ड के तीर्थों में हुई त्रासदी से मेरा मन उद्वेलित है। इतने पूरे भारत को दुखी किया है। लोग कहते हैं कि यह कुदरत का कहर है लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि कुदरत बहुत उदार होती है। तुम एक बीज धरती में डालोगे तो वह उसकेे बदले तुम्हें हजार वापिस लौटाती है। हम उसे जो देते हैं वही तो उससे पाते हैं ना? यह विचार पैदा होता है कि जो केदारनाथ सबके नाथ हैं वो लोगों को अपने आंगन में अनाथ करके वहां विराजित हैं! कदाचित उनके मन में शिकायत है हमारे लिए। वो कहते हैं कि मैं प्रकृति में हूं, मैं सृष्टि में हूं, मैं कण-कण में हूं। तुमने मुर्गी के अण्डे खाये, तुमने असहायों पर डण्डे बरसाये, तुमने अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण किया। तुमने धरती के साथ, प्रकृति के साथ सद्व्यवहार नहीं किया। अब तुम मेरी मूर्ति के सामने आकर मेरा सत्कार कर रहे हो? मैं संहार का देवता हूं लेकिन फिर भी मैं असमय किसी का संहार नहीं करना चाहता लेकिन तुमने यदि प्रकृति का उपहास किया है तो आज प्रकृति तुम्हारा उपहास कर रही है।

आज सारा देश उन लोगों के दर्द को अनुभव कर रहा है जो इस भीषण त्रासदी का शिकार हुए हंै। यह प्रकृति द्वारा किया गया अन्याय नहीं बल्कि हमारे द्वारा हमारे ही साथ किया गया व्यवहार है जो इस प्राकृतिक आपदा के रूप् में हमारे सामने आया है। हम जो चाहते हैं वहीं व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। अगर हम प्रकृति से कुछ अच्छा चाहते हैं तो उसके बदले हमें भी उसे कुछ देना होगा ना? हम अगर अपने दुष्कर्मों से प्रकृति को गंदा कर रहे हैं तो बदले में वह हमारा ख्याल कब तक रख सकेगी? केवल प्रकृति ही नहीं बल्कि अपने आसपास के प्राणी मात्र के साथ सद्व्यवहार करो बच्चों। नेह बांटो, प्रेम बांटो, भरोसा बांटो, अपने चित्त में संतोष लाओ, किसी एक की जिंदगी जरूर संवारों। किसी की मदद करो लेकिन ख्याल रहे कि जिसे मदद की है तुमने, उसे पता ही न चले कि किस हाथ ने उसकी मदद की है। ऐसा जीवन जियो जिसपर सब गौरव कर सकें।
बच्चों, प्रतिष्ठा बड़े पदों से मिल सकती है लेकिन प्रसन्नता हमेशा भीतर के अच्छे इरादों से आती है।  अगर कोई बोझिल है तो वह अपने पापों के पत्थरों से दबकर बोझिल होता है। जैसे जैसे इन पत्थरों से मुक्त होओगे तैसे ही तैसे हल्के होकर आनन्द से भर उठोगे। ऐसा व्यक्ति जिसके पास पश्चिम के जगत की त्वरा और पूरब के जगत की शांति हो तभी हम श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे। तुम मां बनोगी आने वाले समय में बेटियों, और जब मां बनोगी तो अपनी संतानों को बताना की बच्चे, स्त्री मात्र शरीर नहीं होती। जब उसे यह संस्कार दोगी तो आने वाले समय में फिर किसी भी ‘दामिनी’ के साथ बर्बर और अमानुषिक व्यवहार नहीं होगा।


                                                                                                                            -दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
                                                                                                       सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, जुलाई 2013