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Wednesday, September 25, 2013

स्नेहभरा सहारा उत्तराखंड वासियों की प्राथमिक आवश्यकता

‘भयानक प्राकृतिक आपदा से बिखर चुके उत्तराखंड के अनेक गांवों में चारों ओर से राहत सामग्री का पहुंचना जारी है। मैंने पहाड़ी रास्तों पर से गुजरते हुए कई स्थानों पर देखा कि बच्चे धीरे-धीरे चल रही गाडि़यों की पीछे दौड़ते हैं। अपने दोनों हाथ फैलाये हुए उन्हें देखकर मन दुःख से भर उठता है। हर कोई उन्हें आकर कुछ न कुछ देता है। भय इस बात का है कि इस त्रासदी के बाद लगातार चल रहा राहत अभियान कहीं उन बच्चों को ‘याचक’ मनोवृति से न भर दे। अपने कठिन परिश्रम के दम पर पहाड़ों की विषम परिस्थितियों में जीने वाले ये स्वाभिमान गिरिवासी कहीं दीन-हीन भावना से न भर उठें, अपने राहत कार्यों के दौरान हमें इन बातों का भी विशेष ध्यान रखना होगा। हम यदि किसी को रोटी दे रहे हैं तो यह बहुत अच्छी बात है लेकिन यह भाव तब और भी सुन्दर रूप ले उठेगा जब हम उसे रोटी कमाने लायक बना दें।

    हमने तय किया कि इन प्रभावित इलाकों में जहाँ भी जिसे जैसी जरूरत होगी उसे वह सामग्री या सहायता प्रदान करेंगे लेकिन सर्वोच्च प्राथमिकता होगी उन लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की जिनका सबकुछ छिन चुका है इस विपति में। परमशक्ति पीठ के माध्यम से हम बच्चों की अच्छी शिक्षा व्यवस्था करेंगे। पति या बच्चों के बिछोह से दुखी महिलाओं को सहानुभूतिपूर्वक उस दुःख से निकालकर हम वात्सल्य सेवा केंद्रों के माध्यम से स्वाभिमानपूर्ण स्वरोजगार की ओर अग्रसर कर रहे हैं।

    मैंने उत्तराखंड में अपने बच्चों से बिछुड़ गई माँ की ममता को तड़पते देखा है। रोज रात को अपनी माँ की गोद में सिर रखकर, उसका हाथ पकड़कर उसकी लोरियां सुनते हुए सो जाने वाले बच्चों को अपने माता-पिता की याद में बिलखते देखा है। बहनें, भाईयों की याद में तड़प रही हैं और भाई जंगलों में, घाटियों में अपनी बहन को तलाश रहे हैं। अनकहे दर्द से सारी केदारनाथ घाटी चुपचाप आंसू बहाती है दिन रात। जो बिछुड़ गए अब उन्हें तो नहीं मिलाया जा सकता लेकिन हाँ उनकी पीड़ा को हम सभी मिलकर कम जरूर कर सकते हैं। हमने परमशक्ति पीठ के माध्यम से दानदाता बंधु-भगिनियों से आव्हान किया है कि वे हमारे इस अभियान के माध्यम से पीडि़त मानवता की सेवा में आगे आएं। यह बताते हुए प्रसन्नता है कि दुनिया भर से हमारे इस कार्य को लोगों ने केवल सराहा ही नहीं बल्कि अपना भरपूर सहयोग भी प्रदान किया है।
- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा

Monday, September 23, 2013

क्यों कुपित है प्रकृति?

मैं विज्ञान का विरोध नहीं करती क्योंकि वह तो नैसर्गिक रूप से ही प्रकृति में चारों ओर विद्यमान है लेकिन ऐसा विज्ञान जो प्रकृति से खिलवाड़ करने लगे, हमें क्या किसी भी समझदार मनुष्य को स्वीकार्य नहीं होगा। हम आधुनिक विज्ञान की चकाचैंध में अपनी लोक मान्यताओं को दकियानूसी नहीं मान सकते। आज धर्म और विज्ञान का जो संघर्ष दिखाई देता है वह प्राचीन भारत में नहीं था। क्योंकि तब विज्ञान को धार्मिक कृत्यों के साथ जोड़ा गया था। तब आज की तरह धर्म को व्यापार बनाने की होड़ नहीं थी। हमारे सभी ऋषि-मुनि मूलतः वैज्ञानिक थे। उस समय उनके द्वारा किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा धारणाओं को सामान्य लोगों तक पहुंचाने मंे सहायक प्रसार माध्यमों का अविष्कार नहीं हुआ थी। इसीलिये उन्हें नित्यप्रति दैनिक जीवन से जोड़ने के लिए धर्म का सहारा लिया गया। उन्होंने बताया कि मानव मूलतः पूर्णरूपेण प्रकृति द्वारा नियंत्रित है, उसकी सभी आवश्यकताएं भी वही पूर्ण करती है इसीलिए उसे माता का दर्जा दिया गया। वृक्ष हमें प्राणवायु देते हैं, इसीलिए उनमें देवताओं का वास माना गया। नदियां हमें जीवन जल देती हैं इसीलिए उन्हें माता माना गया। भारतीय मनीषा में धरती के कण-कण में ईश्वर का वास माना गया क्योंकि इस धरती पर सबकी अपनी महत्ता है।

आज चारों ओर बहस इस बात पर हो रही है कि कि धर्म बड़ा या विज्ञान? आज हम जिस युग से गुजर रहे हैं उसमें तकनीकी योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। लेकिन विचार की बात यह है कि आज से हज़ारों वर्श पहले भी तो विज्ञान था। श्री केदारनाथ मंदिर के इतिहास में जाने पर यह मालूम होता है ज्ञात इतिहास में 9 वीं शताब्दी के आसपास उसका जीर्णोद्धार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने करवाया था। अभी हाल की विभीशिका में इस मंदिर के आसपास के लगभग सारे भवन तिनकों के समान जलप्रलय में बह गये लेकिन मंदिर का मुख्य भवन जस का तस टिका रहा। यह वर्णन भी मिलता है कि 14 वीं शताब्दी में जब धरती पर एक छोटा हिमयुग चल रहा था तब केदारनाथ मंदिर की वर्तमान इमारत 400 वर्श तक बर्फ में दबी रही! आप कल्पना कीजिए कि उस समय शिल्प विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा जिसने इतना मजबूत भवन बनाया जो ग्लेशियरों में दबकर भी सैकड़ों वर्ष तक सुरक्षित रहा। हज़ारों-लाखों वर्श पूर्व क्या तब विज्ञान नहीं था जब हमारे ऋशि-मुनियों ने ग्रह-नक्षत्रों की सटीक गणना कर खगोलशास्त्र की रचना की। कहने का आशय है कि हमारी एक भी मान्यता ऐसी नहीं है जो विज्ञानसम्मत ना हो।

केदारनाथ त्रासदी की बाद एक बहस और चली कि उसी क्षेत्र में बन रहे एक बांध के बीच में आ रही धारीदेवी की प्रतिमा को योजनाकारों ने बिना किसी आवश्यक अनुष्ठान आदि के वहां से हटाकर अन्यत्र स्थापित करने का प्रयत्न किया।  16 जून 2013 को शाम साढ़े सात बजे देवी की वह प्रतिमा वहां से हटाई गई और उसके तुरंत बाद ही यह जलप्रलय हो गई। इस धार्मिक कारण का खण्डन कर रहे तमाम वैज्ञानिकों से मैं दृढ़तापूर्वक कहना चाहती हूँ कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई विकसित देशों में भी लोकमान्यताओं को महत्व दिया जाता है। आज भी हमारे देश के ऐसे पहाड़ी और अभावग्रस्त इलाकों में जहाँ चिकित्सा की प्राथमिक सुविधाएं ही नहीं वहाँ उस गाँव में पूजे जाने वाले देवी-देवता ही उनके रक्षक होते हैं, उन्हें रोगों या प्राकृतिक आपदाओं से बचाते हैं।
यदि इस तर्क को न माना जाये और विज्ञान पर ही विश्वास किया जाये तो हम पायेंगे कि भूवैज्ञानिकों द्वारा भी बरसों से चेतावनियां दी जाती रही हैं कि केदारनाथ धाम के मुख्य मंदिर की पश्चिमी पट्टी पर किसी भी भवन का निर्माण वास्तुविरुद्ध है। वह हिमालय के प्राकृतिक जल बहाव का क्षेत्र है। यही अनुसंधान उस युग का भी है जब आज का तथाकथित विज्ञान नहीं जन्मा था। विकास के नाम पर उस पुरातन मान्यता की अनदेखी के परिणामस्वरूप हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। कुछेक बातों को छोड़ दिया जाये तो हमारी लगभग प्रत्येक मान्यता विज्ञान आधारित ही है।

 मैं वैज्ञानिक विकास का विरोध नहीं करती लेकिन मैं उस प्रगति के विरुद्ध हूं जिसे प्रकृति के साथ बलात्कार करके हासिल किया गया हो। केदारनाथ की त्रासदी बेशक दुखद है लेकिन यह मनुश्य द्वारा विकास की अंधाधुंध दौड़ में प्रकृति से छेड़छाड़ के विरुद्ध एक सीमित चेतावनी भी है। वृक्ष धरती माता के वस्त्र हैं, हम उनकी कटाई करके केवल उसे नग्न ही नहीं कर रहे बल्कि अपने लिए विनाश को आमंत्रित भी कर रहे हैं। विज्ञान के दंभ पर फूलकर हम धरती लांघकर चांद पर जा बसने की तैयारी कर रहे हैं। हम क्यों ये कोशिश नहीं करते कि हमारी यह धरती माता ही चांद से सुंदर बन जाये।

स्मरण रखियेगा कि देवालय शक्तिस्थल होते हैं। वहां जाकर हमें एक नई जीवनी शक्ति अर्जित होती है। भारत के जितने भी सिद्ध और महापुरुश हुए वे अपने जीवन में एक ना एक बार हिमालय जरूर गए। वहां जाकर उन्होंने जप-तप किया फिर नीचे आकर जनता को अपना मार्गदर्शन दिया। देवों की इस तपोभूमि को आज हमारी नवागत पीढ़ी ने रंगभूमि बना दिया है। किस दिशा में जा रही है आज हमारी युवा पीढ़ी? आज इन महान तीर्था में हम दर्शन करने नहीं रंजन करने जाते हैं। यह विभीशिका हमारे ही दुश्कर्मों के द्वारा प्राकृतिक आपदा का भयानक रूप धरकर हमारे ही सामने खड़ी हुई है। पूरा हिमालय क्षेत्र देवाधिदेव महादेव की तपस्थली है। वही महादेव जो विश को अपने कंठ में धारण कर जगत को अमृत बांटते हैं। हिमालय दर्शन को अवश्य जाइये लेकिन अपना प्रदूशण पीछे मत छोड़कर आइए। हिमालय को हिमालय ही रहने दीजिए जहां से जीवन की धारा बहती है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 

Tuesday, September 10, 2013

निष्काम कर्म ही सेवा कार्य की ऊर्जा है

उत्तराखण्ड में परमशक्ति पीठ ने राहत के जो कार्य आरंभ किए हैं। जब हमने यह संकल्प किया था तब मैं अकेली थी लेकिन आज मुझे यह कहते हुए यह गर्व होता है कि आज इस कार्य में मेरी गुरु बहनें, मेरी शिष्याएं और समाज के अनेक बंधु-भगिनी लगे हैं। और सबसे बड़ी कृपा तो मेरे पूज्य गुरुदेव जी की है। हरिद्वार स्थित गुरुदेव के आश्रम को हमने सबसे पहला आधार शिविर बनाया जहां से उत्तराखण्ड पीडि़तों के लिए राहत सामग्री भेजी गई।

मुझे यह कहते हुए भी अति प्रसन्नता है कि हमारे श्री जयभगवान जी अग्रवाल ने आपदा प्रभावितों के लिए बहुत बड़ा सामग्री संग्रह दिल्ली से किया। गृहस्थी की जरूरतों का कोई भी ऐसा सामान नहीं बचा था जिसे उन्होंने हरिद्वार स्थित परमशक्ति पीठ के आधार शिविर पर भेजने में कोई कसर छोड़ी हो। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था फिर भी उनके मन के उत्साह ने उन्हें फिर से कर्तव्य के मैदान में खड़ा किया। क्योंकि जयभगवान जी किसी भी शुभकार्य में सहयोग के लिए कभी इंकार कर ही नहीं सकते।
     
मैं अपने गुरुदेव पूज्य युगपुरुष जी महाराज के पावन श्रीचरणों में भी कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं जिन्होंने हरिद्वार के आश्रम में स्वयं उत्तराखंड वासियों के लिए जाने वाली राहत सामग्री की एक-एक वस्तु को स्वयं देखा और कार्यकर्ताओं को अपना पावन मार्गदर्शन दिया। जब मैं आपदाग्रस्त क्षेत्रों को स्वयं देखने के लिए संजय भैया  जी के साथ हरिद्वार से निकल रही थी तब गुरुदेव ने हंसकर कहा कि -‘ऋतंभरा तुम्हारा शरीर इतना भारी है, तुम कैसे चढ़ पाओगी उत्तराखण्ड के पहाड़ी गांवों तक?’ मैंने कहा -गुरुदेव, आपकी कृपा से मेरा संकल्प भी तो भारी है। मेरा शरीर उसपर भारी नहीं पड़ेगा।’
    
इस कार्य को आरंभ करते हुए मैंने अपनी छोटी-छोटी साध्वी शिष्याओं में अपार उत्साह देखा। जब वो उत्तराखंड के वात्सल्य सेवा केंद्रों की ओर प्रस्थान कर रही थीं तब उन्होंने मुझसे कहा -‘दीदी मां जब उन पहाड़ों पर चारों ओर मौत बरस रही हो तो शायद हमें थोड़ा भय लगेगा। उस समय हम क्या करें? मैंने कहा -‘उस समय इन पंक्तियों को गुनगुनाना…
"वो देखो पास खड़ी मंजिल
इंगित से हमें बुलाती है
साहस से बढ़ने वालों के
माथे पर तिलक लगाती है
साधना कभी ना व्यर्थ जाती
चलकर ही मंजिल मिल पाती
फिर क्या बदली, क्या घाम है
चलना ही अपना काम है.. "
      
मैनें उन्हें कहा कि हमेशा उत्साह से भरे रहना। क्योंकि सेवा का कार्य तो एक गर्भस्थ शिशु जैसा होता है। जो तिल-तिल बढ़ते हुए फिर एक दिन जन्मकर एक फल के रूप में सामने आता है। और हमेशा स्मरण रखना कि जो दिल महत्वाकांक्षाओं से मुक्त होता है वही सेवा में तत्पर होता है। कदाचित व्यासपीठों के आकर्षण बहुत बार सेवाधारियों को भी विचलित करते हैं। क्योंकि यश और कीर्ति ऐसी चीजें हैं कि लोग कंचन और कामिनी को तो छोड़ देते हैं किन्तु प्रसिद्धी की चाह को छोड़ पाना बहुत मुश्किल है। हां यह अलग बात है कि जब भी कहीं कोई फूल खिलता है तो उसकी खुशबू तो अपने आप ही फिजाओं में फैलती है। मैं परमशक्ति पीठ ओंकारेश्वर को संचालित करने वाली अपनी गुरुबहने साध्वी साक्षी चेतना दीदी को बहुत धन्यवाद देती हूं जिनके संरक्षण में रहीं हुई मेरी अनेक छोटी-छोटी शिष्याओं उत्तराखण्ड की दुर्गम परिस्थितियों में सेवाकार्य कर रही हैं। साध्वी शिरोमणि जी ने सबसे पहले सेवाकार्यों की कार्ययोजना पर काम किया। बहन विचित्र रचना ने भी अनेक दुर्गम पहाड़ी गांवों तक जाकर राहत कार्यों में अपना योगदान दिया जो अब भी वहीं हैं।
     
जब हमने उत्तराखण्ड त्रासदी पीडि़तों के लिए अपने राहत कार्य चलाने की योजना सोची तो सबसे पहले हमारे परमशक्ति पीठ आफ अमेरिका के बंधु श्री रक्षपाल जी सूद के नेतृत्व में वहां की टीम सक्रिय हुई। वो बोले कि दीदी मां हम सबसे पहले इस कार्य के लिए अपना योगदान देंगे। उनकी उस टोली के सदस्य श्री बालू जी आडवाणी एक लाख डाॅलर लेकर भारत आए और विगत गुरुपूर्णिमा के अवसर पर उन्होंने वह राशि उत्तराखण्ड आपदा राहत के लिए परमशक्ति पीठ के लिए मुझे भेंट की। हम सब हदय से उनके आभारी हैं।
    
सबसे पहले हमने यह सोचा कि इस आपदा में अनाथ हो गए बच्चों या महिलाओं को वात्सल्य ग्राम लाया जाये लेकिन गढवाली लोग किसी भी हाल में अपने गांव से पांच-सात किलोमीटर से आगे जाते ही नहीं। तो हमने विचार किया कि हम स्वयं चलकर उनके पास जाएंगे। यानि कुआं प्यासे के पास जायेगा। और फिर हमने गुप्तकाशी और उखीमठ में ‘वात्सल्य सेवा केंद्रों’ का संचालन आरंभ किया। मुझसे जुड़े हुए सभी लोग तन्मयापूर्वक इस पुण्यकार्य में सहयोग दे रहे हैं। मैं सोचती थी कि किसी भी कार्य में राजा उदार और प्रशासक कठोर होना चाहिए लेकिन कल पूज्य गुरुदेव कह रहे थे कि अगर व्यवस्थाओं के दौरान भावनाओं का ख्याल ना रहें तो व्यवस्था बेकार है और यदि केवल भावनाएं हों और व्यवस्थायें ना हों तो वो भी बेकार है। इसलिए हमें भावनाओं और व्यवस्थाओं दोनों को संतुलित करते हुए अपने कार्यों को गति प्रदान करनीं है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा 
सौजन्य - वात्सल्य निर्झर, सितम्बर 2013