About Didi Maa

Wednesday, October 23, 2013

भारतीय जनतंत्र की मुखर आवाज थे भानु भैया के शब्द

आज भैया निश्चित रूप से हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां, उनकी यादें पल-पल हमको प्रेरणा देती हैं। भानु भैया कहते थे कि जीवन में न तो अभाव दिखना चाहिए और न ही प्रभाव। चित्त में भी अभाव नहीं होना चाहिए। वैभव का, पदों का अथवा प्रतिष्ठा का प्रभाव भी चित्त में नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर न तो तुम सत्य कह सकोगे और न ही उसे अपने जीवन में धारण कर सकोगे। सत्य के पक्ष में खड़े नहीं हो सकोगे और परेशान हो जाओगे। यदि सत्य कहना है तो उसके लिए व्यक्तित्व में नैतिकता की आग जलनी चाहिए। केवल छवि और छाया में जी रहे हो तो तुम असली नहीं हो, तुम्हारी छवि पत्रकार जगत जानता है। यह बात सभी जानते हैं कि मीडिया के द्वारा छवि बनती है और छाया भी बनती है। छवि और छाया सही हो यह ज़रूरी नहीं है। आपने जिसके गीत गा गाकर उसे जनता के मानस पटल पर स्थापित कर दिया उसके पास राष्ट्र का दर्द है भी या नहीं, यह बात आम जनता नहीं जानती। यह भी हो सकता है कि किसी चरित्रवान व्यक्ति की छवि और छाया को बिगाड़ दिया जाए। वीर सावरकर जैसे भारत माता के लाल के लिए पार्लियामेंट में यह चर्चा हो कि इनका चित्र यहाँ लगना चाहिए या नहीं, यह शर्मनाक है। जिन्होंने समुद्र की उत्ताल तरंगों में पौरुष के अभिलेख लिखे या अंडमान की काली कोठरियों में अपने रक्त से पत्थर की भित्तियों पर शौर्य की कहानियां लिखीं आज उनका नाम लेने में हमको डर क्यों लगता है? हम शर्मिन्दा क्यों होते हैं?

भानु भैया कहते थे कि पत्रकारिता एक मिशन होना चाहिए। वो केवल आपका कैरियर भर नहीं हो सकता और हाँ पत्रकार ही क्यों? अगर कोई देश का प्रधानमंत्री बनने की कल्पना भी करता है तो प्रधानमंत्री बनना साधन तो हो सकता है लेकिन साध्य नहीं हो सकता। मात्र राष्ट्रनिर्माण की कल्पना को साकार करने के लिए वो पद एक साधन मात्र है और अगर पद साध्य बन जाएंगे तो फिर लक्ष्य को कैसे पाया जा सकेगा? अभी तक तो हमने यही देखा है। डाॅक्टर बनना क्या उद्देश्य है? डिग्री हासिल करना क्या उद्देश्य है? धन कमाना क्या उद्देश्य है? नहीं वो तो केवल सााधन मात्र है। वह उद्देश्य नहीं हो सकता। उद्देश्य के बिना जीवन पशु के समान होता है। अगर आपका कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं है तो फिर आपकी जि़न्दगी निरर्थक है इसलिए वो जो हमारे पास आ गया वो तो मात्र साधन है लेकिन उसके माध्यम से जो पाना आना है वो उद्देश्य है। उद्देश्य क्या है? राष्ट्र निर्माण उद्देश्य है, सारी सृष्टि में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना जागृत बनी रहे वो उद्देश्य हो सकता है। माँ भारती के चेहरे पर मुस्कान बनी रहे वो उद्देश्य है। मेरा जीवन समष्टि के लिए अर्पित हो ये उद्देश्य हो सकता है। मेरा ‘अहं’ परिवर्तित होकर ‘वयं’ बने, ये उद्देश्य है। मेरा जीवन सत्य को धारण करे, मैं सत्य को जी सकूँ, मैं धर्म को धारण कर करूँ, धर्म के फल को धारण करूँ ये उद्देश्य है। मैं मनुष्य होकर अपने भीतर के मनुष्यत्व को जाग्रत करूँ, नारायणी भाव को प्राप्त करूँ। उद्देश्य ये है कि मैं केन्द्र के बिन्दु को भी जानूँ और परिधि के परिधान को भी जानूँ। उद्देश्य ये है कि व्यक्ति से मैं समष्टि हो जाऊँ, उद्देश्य ये है कि मैं पेट और पैसे के लिए नहीं अपितु परमात्मा के लिए जियूं, और परमात्मा मात्र कोई छोटी धारणा नहीं है वो विराट है और उद्देश्य क्या है? व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर समष्टिगत सेवा में तत्पर होना उद्देश्य है।

भानु भैया ने इन्हीं सब उद्देश्यों के लिए अपने जीवन को जिया। उनकी लेखनी को देखिए उनकी किसी भी पुस्तक में। उनके द्वारा वह सब जो सन् 1980 या 85 में लिखा गया, आज भी प्रासंगिक लगता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह सब आज के लिए ही लिखा गया हो, अभी इस क्षण के लिए लिखा गया हो। भानु भैया कहते थे कि अतीत ही सत्य है क्योंकि लोग कहते हैं न कि बीती को बिसार दे। वो कहते थे कि केवल उपदेशक होकर यदि कोई अपनी मति या गति का परिचय देना चाहता है तो वह एक तरह का अनर्गल प्रलाप करता है क्योंकि अभी अभी जो पल है वो अभी-अभी ही अतीत भी हो जाएगा। अतीत में डाला हुआ बीज ही तो वर्तमान में वृक्ष है या भविष्य का फल है तो अतीत में से क्या लोगे। अतीत में मूल्य हैं, अतीत में निष्ठा है, अतीत में प्रमाणिकता है। अतीत को उठाकर देखिये, वहाँ सत्य की आभा है, वहाँ अपने लिए नहीं अपनों के लिए चित्त में जीने का भाव है। अतीत के उन मूल्यों के साथ ही, उसकी उस बुनियाद के साथ ही तुम भविष्य के उस भवन को खड़ा कर सकते हो।

मैं भानु भैया के साथ बहुत वात्सल्य, नेह, पे्रम के नाते से जुड़ी रही। वात्सल्य ग्राम के कण-कण में भानु भैया विराजमान हैं, उनका विचार विराजमान है। एक बार मैंने उनसे कहा कि -‘भैया, मैं ऐसे नवजात बच्चों को, जिन्हें लोग कूड़े के ढेर पर फेंक देते हैं, त्याज्य मानकर संसार उनको अवैध कहता है तो मैं बहुत व्याकुल हो जाती हूँ, इस बारे में आप कहोगे?’ तो भैया बोले -‘माँ, सम्बन्ध भले ही अवैध हो सकता है लेकिन संतान कभी अवैध नहीं होती। वो तो सनातन की होती है।’ मैंने कहा -‘भैया, मैं कल्पना करती हूँ कि देश के बच्चों को ममतामयी गोद मिले, प्यार मिले।’ वो बोले -‘माँ, तुम एक ऐसा गाँव बनाओ जो देवकियों की कोख वाला गाँव न हो बल्कि यशोदाओं की गोद वाला हो। तुम ऐसा प्रयत्न करो कि कण्व ऋषि का वो वात्सल्य नेह प्रेम साकार हो जो तुम्हारे दिल में उमड़ता, घुमड़ता रहता है।’ भानु भैया ने ही मुझे नाम दिया ‘दीदी माँ’।

उन्होंने कहा कि दुनिया तुमको दुर्गा और चण्डी के रूप में जानती है। तुम हमेशा क्रोध में रहती हो ऐसा लोग तुम्हें जानते हैं पर जब मैंने तुम्हें नजदीक आकर देखा तो लगा कि वो नन्हें-नन्हें बच्चे तुम्हारे आस-पास हैं, किलकारियां तुम्हारे आस-पास हैं, सहजता और सरलता तुम्हारे आस-पास है तो फिर ये प्रकट क्यों नहीं होनी चाहिए?’ ऐसा कहते हुए उन्होंने ‘हस्तिनापुर’ में दस एकड़ जमीन का जिक्र करते हुए कहा कि तुम वहाँ वात्सल्य ग्राम बनाओ। मैंने कहा -‘भैया, हस्तिनापुर नाम आते ही मन में महाभारत का आभास होने लगता है। एक उहापोह और द्वन्द्व प्रकट होने लगता है। यशोदा के आस-पास ही कन्हैया का जीवन था, तो फिर तय किया कि वृन्दावन में ही हम वात्सल्य ग्राम के स्वप्न को साकार रूप देंगे। फिर भावांे के इस जगत का निर्माण वृन्दावन की भूमि पर ही हुआ। भानुभैया ने कहा था -‘माँ, अपनी वात्सल्य ग्राम की निरन्तरता को छोड़ना मत।’ मैंने कहा कि -‘भैया, मैं जानती हूँ, छोड़ा तो वो जाता है जिसे गृहण किया गया हो लेकिन जो स्वभाव है वो कभी नहीं छूटता। हाँ, कभी देश अगर पुकारे तो अपनी भूमिका अवश्य निभानी होती है। निश्चित रूप से वो स्वभाव नहीं है वो निश्चित रूप से देश के प्रति हमारी भूमिका रही। पहले भी रही, देश पुकारेगा तो फिर रहेगी। पर मैं तो स्वभाव में विराजमान हूँ, सातत्य जिन्दगी का सच होता हैं। नदी बार-बार सागर सेे मिलती है। सागर कहता है मैं तो खारा हूँ और तू मीठी। आखिर कब तक मुझसे आकर मिलती रहेगी? नदी ने कहा जब तक तू मीठा नहीं हो जाता तब तक तुमसे आकर मिलती रहूँगी। इस निरन्तरता को प्रवाह कहते हैं, ये प्रवाह ही निरंतरता है, इसीलिए भारतीयों की सन्तानें संतति कहलाती हैं। जो हमारी परम्परा की सतत् प्रवाहवान उस परम्परा की संवाहक बनती हैं वही तो संततियां होतीं हैं। और आप भी तो संतति के रूप में यहाँ विराजमान हो उस तेजस्विता की उस ओज से भरी पत्रकारिता की संतानों को कैसी होना चाहिए?

आज आप यहाँ सुन रहे हो, कि संकट कितना बड़ा है? उधर क्या हो रहा है, उधर क्या हो रहा है, किसी और से पता करना पड़ रहा है क्योंकि जो सुना और दिखाया जा रहा है उस पर भरोसा नहीं हो रहा। और किसी समाज के लिए सबसे बड़ा संकट तब खड़ा होता है जब एक तो प्रमाणिकता भंग हो जाए और दूसरा जो लिखा और बताया जा रहा है उस पर से भरोसा उठ जाए। तब समाज की स्थिति क्या होगी? क्या आने वाले समय में हम निश्चित करेंगे कि हमारी लेखनी प्रमाणित होगी, कैसे होगी? जब हम प्रमाणित होंगे। जब प्रलोभ हमें प्रलोभित करेगा, जब लालच में विदेश जाने की यात्रा चित्त को आकर्षित करेगी, जब स्वर्ण के भंडार हमारी चित्त चेतना में हलचल पैदा करेंगे या तो फिर कुछ बिगाड़ दिये जाने का भय मन में होेगा।

भानु भैया कहते थे कि भारत भय और माया की मृग मरीचिका में से गुज़र रहा है। इस भय और प्रलोभन से जो पत्रकारिता मुक्त होती है, वही भानु भैया की तरह चाँदनी बनकर सदैव चमकती रहती है। हाँ, सŸाा पर विराजमान लोगों की आरतियाँ उतरती हैं। हाँ, भानुप्रताप जी जैसे लोगों को संगठन और संस्थाओं के माध्यम से अलग-थलग करने के प्रयत्न भी होते हैं। मैं यह भी मानती हूँ कि मन में आई हुई पीड़ा शरीर में कैंसर जैसा रोग भी बन जाती है। पर किसी भी पत्रकार को इससे भी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है तब कहीं जाकर सत्य की संस्थापना हो पाती है। तब यह लगता है कि आज से तीस साल पहले भी लिखा हुआ आज के लिए ही कहा था।
भानुप्रताप शुक्ल उस आभा, उस ओज, उस तेज के धनी थे जिससे आज हम सब आलोकित हो रहे हैं। निश्चित रूप से कोई देश अपनी भूमि से महान नहीं होता बल्कि वहाँ रहने वाले देशवासियों की भूमिका के कारण महानता के शिखर छूता है।

 मैं विद्यार्थियों से कहना चाहती हूँ कि लकडि़यां जब चूल्हे में जलती हैं तो जलकर उनका क्या होता है? राख बन जाती हैं, उससे या तो बर्तन मांजे जाते हैं या उनसे मल-मूत्र ढँक दिया जाता है। लेकिन वही लकडि़यां जब हवनकुण्ड की समिधा के साथ, उस आग में भी जलतीं हैं तो जलकर राख नहीं बनतीं, फिर वे विभूति बनती हैं, भस्म बनती हैं। यतियांे के माथे का सिंगार बनतीं हैं अथवा शंकर के माथे पर आरूढ हो जाती हैं। कदाचित् पत्रकारिता का जगत अपने को समिधा बनाए, और राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में स्वयं को होम करे तो आने वाला कल सुरभित होगा, आभा से युक्त होगा। प्रणाम है, उनका भावभीना स्वागत करती हूँ और आशा करती हूँ कि आने वाले कल में उसी ओज और तेज के साथ

सच चाहें जितना कड़वा हो,
धँस जाए तीर सा सीने में
सुनने वाला तिलमिला उठे,
लथपथ हो जाए पसीने में।  

सच कड़वा ही होता है लेकिन शास्त्र कहते हैं कि सच को किस तरह रखा जाना चाहिए उसके पीछे सकारात्मक सोच होनी चाहिए। बहुत बार सच आग बनकर फैलता है कदाचित् सच यज्ञ कुण्ड की खुशबू बनकर फैले। बहुतों का भला होता है, बहुतों का कल्याण होता है माँ भारती ऐसे तेजस्वी पुत्रों का इन्तज़ार करती है।

भानुभैया ने मुझसे कहा था कि माँ, मैं विदा नहीं हो सकता। शरीर जर्जर हो गया है लेकिन देश का काम अधूरा है, इसलिए माँ मैं लौटूँगा, ज़रूर लौटूँगा। और मुझे लगता है कि इतने सारे तरूण पत्रकारों के बीच में मेरे भानु भैया ही लौट आए हैं। काश उनका दर्द आपका दर्द बने और काश उनके दर्द की दवा भी आप ही बन जाएं।

- दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा
- 13 सितम्बर 2013, पत्रकारिता समारोह, वात्सल्य ग्राम

Monday, October 7, 2013

परमशक्ति पीठ शाखा बाड़मेर में हुआ वात्सल्य सेवा केन्द्र का लोकार्पण

परमशक्ति पीठ शाखा बाड़मेर में दिनांक 22 सितम्बर 2013 को परम पूज्या दीदी माँ जी के कर कमलों द्वारा वात्सल्य सेवा केन्द्र का लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ। 6000 वर्ग फुट के निर्माणाधीन इस भवन के भूतल का निर्माण कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है और प्रथम तल निर्माणाधीन है।

वात्सल्य सेवा केन्द्र का उद्देश्य आर्थिक रूप से अक्षम परिवार की बेटियों को औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ स्वावलम्बी बनाने हेतु व्यावसायिक शिक्षा जैसे- सिलाई-कढ़ाई, कम्प्यूटर कोर्स, गृह उद्योग प्रशिक्षण इत्यादि की भी समुचित व्यवस्था करना है। इसके साथ ही इस केन्द्र में बालिकाओं के व्यक्तित्व विकास हेतु शारीरिक, आध्यात्मिक शिक्षा जैसे ध्यान, योग, प्राणायाम, आत्म सुरक्षा हेतु भी प्रशिक्षित किया जाएगा।