About Didi Maa

Friday, January 30, 2015

जीना इसी का नाम है...

सूरत के इस अद्भुत पर्व में जहाँ एक सौ ग्यारह बेटियों का विवाह सम्पन्न हुआ है इन ऐतिहासिक क्षणों की मैं साक्षी बनी हूँ। ईश्वर का इसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रह चित्त में अनुभव कर रही हूँ। मन में बार-बार आ रहा था कि लोग बहुत बार जिंदगी में यह नहीं समझ पाते कि वे अपनी ऊर्जा को किस क्षेत्र में कैसे लगाएं। भाग्यशाली हैं हमारे महेशभाई सवानी जिन्होंने उन बच्चियों का हाथ थामा है जिन बच्चियों के सिर पर अपने पिता की छत्रछाया नहीं है। महेश जैसे व्यक्ति जब धरती पर जन्मते हैं तो बहुत सारे बच्चे उनको सनाथ होने का अहसास होता है। क्योंकि उनके साथ महेशभाई जैसे व्यक्ति पिता की भूमिका में आकर खड़े हो जाते हैं। मैं जब उनके जीवन को देखती हूँ फिर मुझे लगता है कि बहुत साल, कई साल नर्गिस अपनी बेनूरी को तरसती है बड़ी मुद्दत में पैदा होता है चमन में दीदावर पैदा। धरती धन्य होती है जब ऐसे पुत्र को पा लेती है। कुल धन्य होता है जब ऐसे पुत्र को पा लेता है। जब रजत तुला पर बैठाया गया मुझे तुलादान के लिये, तो मैं वल्लभभाई से कह रही थी कि आपको बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मुझे इतना सम्मान दिया। तो वो बोले कि आप अपने दीकरे को धन्यवाद दीजिये कि वो आपका पुत्र है। और पुत्र अपनी माँ कि लिये क्या नहीं करना चाहता।

महेशभाई ने मेरे साथ जो अपने भाव संबंध को स्थापित किया है वो अनिर्वनीय है। कदाचित धन से आप किसी का योगदान करो, अलग बात है। संस्थाओं को बहुत बड़े-बड़े योगदान बहुत धनपति करते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात होती है जब हम विचार के एक धरातल पर खड़े हो जाते हैं, तब संबंध स्थापित होता है। मेरा हृदय सदैव उन बच्चों के लिये द्रवित रहता है जो बच्चे अपनी मूल धारा से वंचित हो गये। समाज उनको अनाथ कहता है, बेचारा कहता है। अपनी ही संतानों को बेचारा बना देना! ये कहाँ शोभा देता है। जब इस देश में विश्वनाथ हैं, द्वारिकानाथ हैं, पशुपतिनाथ हैं तो फिर कोई अनाथ कैसे हो सकता है? महेशभाई सवानी जैसे जहाँ व्यक्ति हों। वहाँ कोई अकेेलेपन का दंश कैसे झेल सकता है? ये प्रेम-प्यार का प्रवाह, जो पर्व यहाँ स्थापित हुआ। मेंहदी की खुशबू उड़ी तो विश्व के कोने-कोने में पहुँच गई। विश्व रिकार्ड बन गया सूरत के इस क्षेत्र में।  सवानी गु्रप के कार्यकर्ताओं ने हाथ में झाड़ू लिया तो स्वच्छता का, पवित्रता का विश्व रिकार्ड बन गया।

जब कर्मठ लोग, उमंग से भरे लोग, उत्साह से भरे लोग कोई विषय अपने हाथ में लेते हैं तो सफलता उनके चरणों का चुम्बन करती है। महेशभाई वो व्यक्ति हैं जिन्होंने चुना, सद्भावना को चुना। बड़ा विचित्र है। दरवाजे पर तीन देवियाँ आकर खड़ी हैं और घरवाले से पूछ रही हैं कि हम स्वर्ग से आई हैं।  मेरा नाम समृद्धि है, दूसरी बोली मेरा नाम सफलता है और तीसरी बोली मेरा नाम सद्भावना है। लेकिन तेरे घर में एक ही आएगी। बता तू किसको अपने घर में बुलाना चाहता है? उसने सोचा जरा अपनी पत्नी से तो सलाह कर लूँ कि घर में किसको बुलाना चाहिये। पत्नी बोली तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये हैं? अरे तुम्हारे दरवाजे पर समृद्धि खड़ी है और तुम आ गए मुझसे सलाह करने, समय बर्बाद कर रहे हो? जल्दी से समृद्धि को घर में बुलाओ। उसने अपने बेटे से पूछा कि बेटा तीन देवियाँ खड़ी हैं दरवाजे पर। बताओ घर में किसको बुला लें? तो बेटा कहता है कि पिताजी घर के अन्दर सफलता को बुला लीजिये। जहाँ हाथ डालेंगे सफलता ही सफलता मिलेगी। वारे-न्यारे हो जाएंगे। अब पिता सोच रहा है कि समृद्धि आई घर में और सफलता भी आई घर में लेकिन अगर घर में सद्भाव ही न रहा तो फिर समृद्धि और सफलंता सुखी नहीं करेगी। इसलिये वो दरवाजे पर खड़ा हो गया और तीनों देवियों में से सद्भावना की तरफ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। और कहता है कि मेरी प्रार्थना है कि सद्भावना मेरे घर के भीतर आ जाओ। जैसे ही सद्भावना उसके घर के भीतर आने लगी। तो सफलता और समृद्धि भी पीछे-पीछे आने लगीं। उसने कहा कि तुम तो कहती थीं कि तुम तीनों में से कोई एक ही मेरे घर के भीतर आएगी। तुम तो तीनों मेरे घर आ रही हो। तो वो बोलीं कि अगर तुम समृद्धि को चुनते तो अकेली समृद्धि ही तुम्हारे घर आती। तुम सफलता को चुनते तो अकेली सफलता तुम्हारे घर में आती। तुमने सद्भावना को चुना है। जहाँ सद्भावना होती है वहाँ समृद्धि बादलों की तरह बरसती है और सफलता चरणों का चुम्बन करती है। हमारे महेशभाई ने जीवन के उद्देश्य को सद्भाव के लिये अर्पित किया। सारे समाज को जोड़कर ये जो हिन्दू कन्याओं का विवाह मंत्रोच्चारणों से हो रहा था साथ-साथ इस्लाम की बेटियों का विवाह उनका निकाह पढ़ा जा रहा था। और मेरे हृदय में एक बात आ रही थी कि.… 

"एक ज्योत है सब दीपों में
सारे जग में नूर एक है
सच तो ये है इस दुनिया का
हाकिम और हुजूर एक है
हर मानव माटी का पुतला
जीवन का आधार एक है
गहराई तक जाके देखो
सब धर्मों का सार एक है
एक वाहे गुरु एक परमेश्वर
कृष्ण और रहमान एक हैं
नाम भले ही अलग-अलग हों
भगतोें के भगवान् एक हैं
नामरूप की बात छोड़ दो
इन्सानों की जात एक है
मन से मन की तार जोड़ लो
सीधी सच्ची बात एक ह"

इस एकात्मता का, इस आत्मीयता का, इस प्रेम का, इस मनुष्यता का, संवेदनाओं को बो देने का अद्भुत, अद्भुत ये पर्व है जिसमें आकर मैं धन्य हुई हूँ। और महेशभाई को, उनके पिताश्री को, उनकी पत्नी को, उनके पुत्रों को, उनके प्यारे-प्यारे भाईयों को, उनके कुटुम्ब को, कुल को और पी.पी.सवानी के पूरे गु्रप को, परिवार को, विद्यालयों की इस परम्परा को और विद्यालयों में शिक्षा अर्जित करने वाले उन विद्यार्थियों को, उन विद्यार्थियों को दिशादृष्टि देने वाले अध्यापकों को, सबको बहुत-बहुत साधुवाद देती हूँ। वो पति-पत्नी के संबंधों में जो यहाँ अन्तर्गुम्फित हुए उनसे भी निवेदन करना चाहती हूँ संबंध शरीरों का ही नहीं होता, संबंध तो मन का होता है।  जब दो शरीर एक मति गति बनती है तब दाम्पत्य जीवन प्रारंभ होता है। और ये दाम्पत्य युगों-युगों तक चले जब शरीर की वृद्धावस्था, जब शरीर को रोग घेर ले तब एक-दूसरे का सहयोग-साथ देना ये पति-पत्नी के बीच ही संभव हो पाता है। इसलिये एक-दूसरे के लिये अपने स्वभाव को बदलना, जैसे दो लोगों का पैर बांध दिया जाये तो कैसे चलेंगे? सन्तुलन बनाकर चलेंगे इसलिये स्त्री-पुरुष जब पति-पत्नी के संबंध में अन्तर्गुम्फित होते हैं तब एक-दूसरे की भावनाओं का कदर करके ही एक-दूसरे के मन को जीत सकते हैं। बहुत सारे आज हमारे दूल्हे जो हैं जिन्होंने अपनी पत्नी की माँग में सिन्दूर भरा है। माँग का सिन्दूर ही नहीं बनना, अनुराग का सिन्दूर बनना जरूरी है। जरूरी है स्त्री और पुरुष के बीच में बराबरी के धरातल पर खड़े होना। जो पति ‘डाॅमिनेट’ करते हैं सोचते हैं कि मैं अपने बल पर, पैसे के बल पर, अपनी बुद्धि के बल पर पत्नी पर कब्जा कर लूँ। वो शायद शरीर तो पाते हैं पत्नी का पर मन कभी जीत नहीं पाते। मन वही पाता है जो मन की भावनाओं की कदर करता है। जो झुकना भी जानता है, जो ऊँचा उठाना भी जानता है, जो एक-दूसरे के लिये आत्मसमर्पण करता है, वो अपना हो जाता है। और इस समर्पण की बेला में जब हमने अपनी बेटियों को अर्पित किया है ससुराल वालों के हाथ में, बहुत विचित्र है ये। जहाँ सुख भी है और चित्त के अन्दर दर्द भी होता है। दुःख तब होता है जब बेटा घर बाँटता है और दुःख तब भी होता है जब बाप अपनी बेटी को बाँटता है। ये दो क्षण बड़े विचित्र होते हैं। बड़े भावुक क्षण हैं ये। अपनी संतानों को दूसरे घर में रोप देना। एक पौधे को एक जगह से उखाड़ के दूसरी धरती पर रोपना। उस धरती पे वो पौधा तभी जमेगा जब स्निग्धता होगी, जब सींचा जायेगा वो, जब प्यार से संभाला जायेगा वो। इसीलिये नये वातावरण में, नये आवरण में और नई पहचान के साथ जब बेटी अपने बाप का घर छोड़ती है और ससुराल जाती है तो वहाँ अगर उसके साथ बेटी जैसा व्यवहार होता है तो उसके लिये इस संबंध को स्वागत करना सहज हो जाता है। इसलिये मैं यहाँ विराजमान सभी लोगों से निवेदन करना चाहती हूँ और हमारे उस सभी ससुराल पक्ष के लोगों से कि आप जिसको ले जा रहे हो बहू बनाकर वो बेटी है आपकी। और ईश्वर की कृपा से जब उसकी कोख में बेटी आए तो उस बेटी के प्रति उतना ही आदरभाव होना चाहिए जितना आपके हृदय में बेटे के प्रति होता है। उसे कोख से नोचकर कचरे की पेटी में फेंकने का कुत्सित जघन्य भाव भी आपके मन में आना नहीं चाहिए। देश के अन्दर कितनी बड़ी संख्या में बेटियाँ मारी जा रही हैं, इसका जिक्र मैं इस मौके पर करना नहीं चाहती। सम्भालना है, जन्म भी देना है और आसमान पर पहुँचाने का उसको साहस भी देना है। कदाचित् विपरीत परिस्थितियों में भी बेटियाँ अपना स्थान बनाती हैं।

"बोए जाते हैं बेटे, उग जाती हैं बेटियाँ
पढ़ाए जाते हैं बेटे, पढ़ जाती हैं बेटियाँ 
और ऐवरेस्ट की चोटी पर ढकेले जाते हैं बेटे
पर चढ़ जाती हैं बेटियाँ"

वो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए देश की बेटियाँ जब धर्म के लिये, अध्यात्म के लिये, समाज के लिये, राजनीति के लिये अपने आप को समर्पित करती हैं तो वो धरती का गौरव बन जाती हैं, देश का गौरव बन जाती हैं। इसीलिए वो बेटी जिसके लिये हमने दुर्गा कहा, भगवती कहा उसको कोख से नोच के कचरे की पेटी में फेंकना शोभा नहीं देता। लहलहाता है जीवन बेटियों से, तुम्हारे घर में तुलसी का बिरवा है बेटी, गंगा का प्रवाह है बेटी, गायत्री की गूंज है बेटी, माँ की पायल की रुनझुन है बेटी, पापा का आसरा है बेटी, चित्त का उजास है बेटी, हृदय का वात्सल्य है बेटी, घर की रौनक है बेटी, भारत का गौरव है बेटी।     गुजरात की बेटियों के लिये ये अद्भुत वातावरण है। यदि महेशभाई जैसे पिता मिल जायें तो भला कौन बेटी अनाथ रह सकती है? आप सबका वात्सल्य मिल जाये तो भला कौन हृदय रसहीन रह सकता है? आज मैं इस भावपूर्ण वातावरण में सवानी परिवार को बहुत-बहुत साधुवाद देती हूँ। आगे बढि़ये आकाश आपकी सीमा है। देश के गौरव को बढ़ाईये, गुजरात के गौरव को और सूरत के गौरव को आपने आसमान पर पहुँचाया है, विश्व के पटल पर पहुँचाया है।

    दुनिया अचंभित है इस दृश्य को देखकर। आपने जिसको जन्म नहीं दिया उसको विदा करते समय आपकी आँखों में आँसू आ जाना ये मनुष्यता का शिखर है। कदाचित् इतना भावपूर्ण अधिकार तो शायद जन्म देने वाला जनक भी नहीं देता जो महेशभाई ने इन बेटियों को दिया है। मैं बहुत-बहुत साधुवाद करती हूँ, मैं बहुत आनन्दित हूँ महेशभाई आप जैसा पुत्र मुझे मिला। मैं ऐसे बेटे को पाकर गौरवान्वित हूँ। और चाहती हूँ कि माँ भारती तुम महेशभाई जैसे बेटों को लाखों की संख्या में जन्म दो ताकि भारत में कोई बच्ची अकेली ना रह जाये, कोई बच्ची अनाथ ना रह जाये। मैं आप सबको इस मौके पर बधाई देती हूँ।

    दूल्हे के परिवार को, दुल्हन के कुटुम्बीजन और इस दृश्य के जो साक्षी बने हैं, मैं उनका भी साधुवाद करती हूँ। कदाचित्, आज सप्तपुरियाँ यहीं हैं, चारों धाम यहीं हैं, आसमान से देवगण इस दृश्य का दर्शन करके धन्य हो रहे हैं और धरती के पुत्रों पर ईष्र्या कर रहे हैं। वो देवजन मुझे कह रहे हैं दीदी माँ स्वर्ग में सारे सुख हैं, हम भोगते हैं उन सुखों को, पर धन्य हैं माँ भारती के पुत्र जो धरती पर अपने सुखों का त्याग करके मनुष्यता के लिये जीते हैं। उनके आँसू पोछते हैं इसलिये आज हम आसमान से ऐसे माँ भारती के पुत्रों का दर्शन करके धन्य हो रहे हैं। ये देवगणों की भावना मेरे हृदय में उतर रही है। मैं आप सबसे निवेदन करती हूँ कि

"आँसू पोछे नहीं किसीके
भला किसीका नहीं किया है
उसने श्वास किये हैं पूरे
केवल जीवन नहीं जिया है"

जिंदगी को जीना है तो किसी के होंठो पर मुस्कान लाकर देखिये। और उस मुस्कान पर अपनी जिंदगी को निसार करके देखिये। जीना इसी का नाम है। महेशभाई जिस तरह जी रहे हैं जीना इसी का नाम है। और हमें भी ऐसे ही जीना है।

- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
30 नवंबर 2015, सामूहिक विवाह समारोह, सूरत, गुजरात

Tuesday, January 20, 2015

वृद्धों की सेवा हमारा नैतिक दायित्व

‘हमारे समाज में ऐसे कितने बच्चे हैं जो बड़े होकर अपने बचपन को याद करते होंगे? जब रातों को सोते समय हम अपने बिस्तर पर ही मल-मूत्र का त्याग करते थे। जब हमारी माँ ने न जाने कितनी रातों को हमारे मूत्र से बिस्तर के गीले हो उठे भाग पर स्वयं सोकर हमें सूखे में सुलाया होगा। हमारी एक खाँसी और छींक पर वह सारी रात सोई नहीं होगी। हमारे पिता ने हमारा भविष्य सुन्दर हो इसके लिए जाने कितना परिश्रम किया होगा।

    बहुत ही गहरी वेदना का विषय है कि आज समाज में एकाकी वृद्धावस्था के मामले दिनोंदिन बढ़ रहे हैं। अपनी संतानों के लिये जीवनभर कष्ट सहने वाले माता-पिता जब असहाय अवस्था में वृद्धाश्रम की दहलीज पर ढकेल दिये जाते हैं तो मैं समझती हूँ कि जीवन का इससे बड़ा दुर्भाग्य और कोई हो ही नहीं सकता। ऐसा करते हुए संतानों को यह जरूर सोच लेना चाहिए कि एक दिन उनकी भी यही हालत होगी। क्योंकि जो व्यवहार वे अपने माता-पिता से कर रहे हैं, उनके बच्चे भी वही व्यवहार उनसे करने वाले हैं। केवल अपने माता-पिता ही नहीं बल्कि हर उस बुजुर्ग का ख्याल रखिये जो अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता। उसकी सेवा-सुश्रुषा एक ऐसा पुण्यकार्य है जो लाखों यज्ञानुष्ठानों के बराबर फलदायी है। उनका आशीर्वाद जीवनभर साथ चलकर सुख-समृद्धि की मंजिल तक ले जाता है। आइये, नववर्ष में हमसब संकल्प लें अपने बुजुर्गों की सेवा का’
                                                                                                                        -दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
वात्सल्य निर्झर, जनवरी 2015